सोमवार, अक्तूबर 13, 2014

"रोड ऐक्सिडेन्ट" मै और मेरे दोस्त

कल आमीर का शो सत्यमेव जयते देखा उसमे जो कल का मुद्दा था उस्से मैने खुद को कई जगह जुडा हुआ पाया, निस्चित ही अगर आपने देखा होगा या देखते तो आप भी ऐसा ही मह्सुश करते, मुद्दा ही ऐसा था। मुद्दा था- "रोड ऐक्सिडेन्ट"

शहर के अन्दर रहने के कारण बचपन से ही अक्सर रोड और उस पर होने वाले ऐक्सिडेन्ट से मॆरा समना होता रहता था, उमेश भैया कि बीमारी कि वजह से बचपन मे ही छ: महीने तक इलहाबाद मेडीकल कालेज मे रहा, जहा पर रोज रोड ऐक्सिडेन्ट कि वजह से लोगो को मरते, हाथ पैर जोड्वाते, कटवाते, सर पर टाके लगवाते और उनसे जुडे लोगो को रोते बिलखते देखा। जिसके कारण ऐक्सिडेन्ट क्या होता है? इसकी भयानक तस्वीर मेरे मन मश्तिश्क मे बन चुकी थी। मै तब से हमेशा इस्से बचने का हर प्रयाश करने लगा और ऐक्सिडेन्ट की चपेट मे आये लोगो की जहा तक हो सके मदद भी करने लगा। चिरागन NGO कि सुरुवात करने का कही न कही एक कारण ऐक्सिडेन्ट भी बना।

जब मै गाडी चलाने लगा या दोस्तो के साथ उनकी गाडी पर बैठने लगा तो अक्सर मै ऐक्सिडेन्ट को ध्यान मे रखने लगा पर इन्शान हु, गल्तिया मुझसे भी हो जाती थी। आज भी दोस्तॊ की गाडी पर जब मै बैठता हु तो कृष्ण गोपाल और अजिम के साथ मुझे सबसे ज्यदा डर लगता है क्योकी ये गाली देने और गुससाने के बाद भी नही सुधरते है।

खैर~ रोड ऐक्सिडेन्ट के कुछ वाक्ये मुझे याद आ रहे है। एक घटना तब की है जब इलहाबाद मे कुम्भ लगने वाला था, सडको को खोदा जा रहा था, गहरी सीवर लाइने डाली जा रही थी, सडको को चौडा किया जा रहा था, ठण्डी मे दिसम्बर का महिना था और रात के कोइ साडे दस से ग्यारह बजे थे। मै और आशु घर से खाना लेके हर्टकेयर होस्पिटल के लिये निकले थे जहा पर हमारे एक मित्र शिवेन्द्र रोड ऐक्सिडेन्ट के कारण ही भरती थे। अपने घर के पिछे डोक्टरो के पोश इलाके दरभङ्गा मे हम पहुचे ही थे की सुन्सान सडक के बिचॊ बिच खुदे सिवर के नये गढ्ढॆ मे मुह के बल गिरा एक आदमी कराह रहा था जिसकी चालु बाईक उसके उपर नाच रही थी। हम रुकते है पहले किसी तरह बाईक को निकालते है फ़िर टाग से खिचकर किसी तरह उस व्यक्ति को निकालते है। उनके पुरे मुह से खुन बह रहा होता है, चेहरा कई जगह से क्ट चुका रह्ता है। और वो महाशय खुद दारु के नशे मे झुम रहे होते है। हमारे पहुचने से पहले ही कोइ सज्जन ग्ढ्ढॆ से ही उनका मोबाईल और पर्स लेकर भाग चुका रहता है। किसी तरह उनके घर पर मै फोन करता हु, उनकी पत्नि सुनते ही रोने च्चिल्लाने लगती है मै उन्से कह्ता हु आप राज नर्सिग होम आइये हम उन्हे लेकर वहि जा रहे है, किसि तरह हम उन्हे लादकर हास्पिटल पहुचते है। कुछ ही देर मे उनके परिवार वाले भी वहा आ जाते है फ़िर मालुम चलता है कि ये महाशय खुद एक डाक्टर है और इनका नाम आनन्द सिह है, प्लेटिनम बार से कोइ पार्टी करके लौट रहे थे। फ़िर कुछ देर बाद हम लोग वहा से निकल लेते है। दो दिनो बाद डाक्टर साहब कि पत्नि का मुझे फ़ोन आता है और रोने लगती है, कह्ती है भैया आपकी वजह से आज मेरे पती की जान बची है मै आपका अहशान जिन्दगी भर नही भुलुगी अगर आप उस दिन मेरे पती को लेकर होस्पिटल न आये होते तो शायद आज वो जिन्दा न होते, उनकी हालत कितनी सिरियस थी उस्को आप इशी से समझ सकते है की सुबह होते ही हमे उन्हे लेकर शहारा होस्पिटल लखनऊ आना पडा। अब जा कर वो खतरे से बाहर है, आपको जो चाहिये मै वो दुगी, आपका अह्शान मै---- और न जाने क्या क्या------ फ़िर मैने कहा भाभी इन सब कि कोइ आव्श्यक्ता नही है, बस आप भी हमारी तरह किसी जरुरत मन्द कि मदद कर दिजियेगा, शायद कोइ जिन्दगी बच जाये।

दुसरी  घटना 8 फरवरी 2014 की है ये वो दिन था जब मैंने अपनी लाइफ का पहला बड़ा इवेंट "यस आई कैन" मैनेज किया था। उसमे मेरे अधिकतर दोस्त आये थे पर अफ़सोस उनमे से अधिकतर ने उस इवेंट में बताई गयी किसी भी बातो पर जरा भी अमल नहीं किया था, शाम को मेरे कुछ दोस्त एक लड़के के भाई की शादी में कौशाम्बी जाने के लिए इलाहबाद से निकलते है। पर अफ़सोस निकलने से पहले.... वे शराब पीते है, आधे रास्ते पहुँचते पहुँचते शायद उनके नशे का लेवल बदल चुका रहता है इसलिए वे फिर रुकते है और फिर भर पेट दारु पीते है। अब वो अपनी गाड़ियों पर सवार होकर हवा से बाते करने लगते है, एकाएक रास्ते  में एक चौराहा आता है और रश ड्राइविंग के कारण वे गिर पड़ते है उसमे मेरे एक दोस्त की रीढ़ की हड्डी टूट जाती है उसे बाकी लोग लेकर उसी राज नर्सिंग होम आते है जहा पर मैंने डॉक्टर आनंद सिंह को भर्ती कराया था। मुझे जब मालूम चलता है तो मै भी हॉस्पिटल जाता हु पर अफ़सोस उससे नजरे नहीं मिला पाता हु, और अंदर नहीं जाता हु। उसी दिन उसे लेकर लोग दिल्ली के एम्स में जाते है जहा पर उसकी जान तो बच जाती है पर उसके कमर के निचे का हिस्सा अब केवल मॉस और हड्डियों का एक निर्जीव समान लोथड़ा बन चुका रहता है। कुछ दिनों बाद वो वापस इलाहाबाद आता है मै सोचता हु अब उससे मिलु, वो अपनी fb पर खुद की सलामती की दुआ मांगने के लिए एक पोस्ट भी डालता है पर मै चाह कर भी अपने एक दुसरे दोस्त की वजह से न उस पर कमेंट करता हु न उससे मिलने जाता हु। मेरे दूसरे दोस्त को न जाने कौन सी बीमारी हो गयी रहती है, मुझे खुद की, एसिडेंट हुए दोस्त की फ्रेंड लिस्ट सहित कई अन्य जानने वाले लोगो की फ्रेंड लिस्ट से अनफ्रैंड करा देते है, वो अपने हर उस दोस्त से अपने रिश्ते बिगाड़ने लग जाता है जिनसे मै हस कर बात कर लेता था या कोई मतलब रखता था मेरे साथ साथ उसे भी माँ बहिनो के साथ सम्बोधित करने लग जाता। जबकि वो भूल जाता की इन्ही माँ बहनो को कभी उसने खुद की माँ बहन का दर्जा दे रखा था। पर अफ़सोस ------- मैंने कई बार कोशिश किया की रिश्तो को शभाल लू, पर शायद वो ऐसा नहीं चाहता था, मै भी एक इन्शान था कुत्ता तो नहीं।  फिर क्या? मैंने भी रिश्तो को एक हंशी मोड़ देकर, अपने आपको हर उस जानने वाले से दूर करना शुरू कर दिया जिनको वो जानते थे, ताकी वो खुश रहे। पर हा ईश बात का ख्याल रखा की कही कभी किसी से किसी मोड़ पर मुलाकात हो जाये तो एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा सके या फिर कभी रिश्तो में वापस लौटना हुआ तो ये अफ़सोस न रह जाये की "यार हम तो काफी दूर निकल आये है"

अभी कुछ दिनों पहले मेरा वो  दोस्त जिसका एसिडेंट हुआ था वो इस दुनिया को छोड़ कर चला गया, मुझे इस बात अफ़सोस पूरी जिंदगी रहेगा की मै उससे मिल न सका। काश उन सभी लोगो ने उस रात दारु न पि होती या उनके साथ वाले लोगो ने उन्हें दारू पिने से रोका होता और वो जिंदगी को लेके कुछ सिरियस होते तो शायद आज वो दोस्त जिन्दा होता। भगवान उसकी आत्मा को शांति और मुझे सदबुद्धि दे ताकी मै सही और गलत का फैसला कर सकु।

खैर ये दो घटनाएं तो रोड एसिडेंट का उदाहरण मात्र है जिनसे कही न कही मै जुड़ा था।  आमिर का ये प्रयास भी हमेशा की तरह सराहनीय था। मोदी सरकार रोड पर चलने के लिए नया कानून ला रही है मैंने भी उनके पोर्टल mygov.in पर उन्हें सुझाव भेजा है की एसिडेंट के बाद सहायता करने के लिए बनने वाले कानूनो को व्यवहारिक बनाया जाये, अस्पताल ले जाने वाले लोगो को अनर्गल परेशान न किया जाये, बल्कि उन्हें प्रोत्साहित या सम्मानित  किया जाये।  ताकि अधिक से अधिक लोगो की जान बचाई जा सके। क्योकि जितने लोग एसिडेंट होने से नहीं मरते है उससे कही अधिक लोग एसिडेंट के दौरान समय पर इलाज न मिलने के कारण मरते है। 

किंजल   

गुरुवार, जुलाई 24, 2014

निकलने लगे दस-दस, बारह साल पुराने खोये हुए डेटा।

हर दुर्घटना हमेशा केवल दुःख ही नहीं लाती है, कभी कभी अनचाहे में सुख भी लेकर आती है.... जैसे इशी फोटो को ही ले लीजिये आज तक Oknext ने न जाने कितनो के लिए डेटा रिकवरी का काम किया पर खुद के खोये डेटा के लिए कभी समय ही नहीं निकाल पायी। न जाने कैसे 500 GB की हमारी हार्डडिस्क क्रैश कर गयी, फिर क्या अब मजबूरी था समय निकालना, काम शुरु हुआ और निकलने लगे दस-दस, बारह साल पुराने खोये हुए डेटा। उन्ही में से एक ये फोटो भी है जिसमे मै और मेरी छोटी बहन है. जो की आज से लगभग दस साल पहले ली गयी थी। जबकी पिछले दस सालो में हार्डडिस्क को न जाने कितनी बार फॉर्मेट किया जा चुका था।

बुधवार, जुलाई 23, 2014

कॉलेज के वो दिन


कॉलेज के वो दिन भी क्या मस्ती भरे हुआ करते थे, हम किसी भी मौके को बस ढूढ़ा करते थे और यही कोशिश करते थे की आया हुआ ये मौका छूट न जाये। शहर के बीचों बीच सिविल लाइन में घर होने की वजह से इन मौको को अक्सर तलाशने और भुनाने का माध्यम बनता था मै और मेरा घर। उन्ही मौको में से एक मौके पर की ये फोटो आज से लगभग आठ साल पहले, प्रिन्सी के बर्थडे पर ली गयी थी। हम सब जैसे तब थे वैसे ही अब भी है, बदला है तो केवल समय। जिसकी कमी अब हम सबको है। आदर्श और कृष्णा में पंडित और बनिया वाली लड़ाई तब भी होती थी और अब भी, दीपक का दिल दरिया तब भी था और अब भी, मेरा हाल तो पूछिये ही मत। आज से लगभग चार साल पहले हमने Chiragan नाम की NGO डाली जिसे हम सब मिलकर पूरी लगन से अब भी चला रहे है। बाकी कृष्णा HCL में काम कर रहा है तो आदर्श अपने प्रॉपर्टी के बिज़नेस में लगा हुआ है। दीपक ह्यूमन राइट से जुड़ कर लगातार कई सारे मूवमेंट से जुड़ा हुआ है तो वही मैं Ok Next नाम से एक कंपनी चला रहा हु। वर्तमान में व्यस्त सब है, पर कालेज की आदत अब तक गयी नहीं है, गाहे बगाहे मस्ती के लिए फुर्सत हम अब भी निकाल ही लेते है।

शुक्रवार, जुलाई 18, 2014

तोल-मोल कर बोलें शब्दों की महिमा को समझें.!

सब शब्दों का ही तो खेल है ..!
मीठे हुए तो दिल में उतर शीतलता दे जाते है ..!!
कभी तीखे हुए तो दिल में कटार बन जख्म दे जाते है ..!
मन में कितना भी अंतर्द्वंद चल रहा है,ये कौन जान पाता है ..!!
क्या कहा किन शब्दों से हमने खुद को अभिव्यक्त किया बस ..!
वही सामने वाले ने समझा और हमारे लिए अपनी धारणा बना ली ..!!
आपके कहे शब्द किसी का दिल न दुःखायें जाने -अनजाने कुछ ऐसा ना कह जाये ..!
सामने वाला दुखी हो जाये या अपमानित समझे खुद को सबके सामने ..!!
कोशिश कीजिये जो भी कहें सोच समझ का तोल-मोल कर बोलें शब्दों की महिमा को समझें.!
ख़ुशी ना दे पाएं हर एक को गर मुमकिन ना हो तो पीड़ा भी न पहुँचायें..!!

गुरुवार, अप्रैल 24, 2014

मै उन सभी लोगो से माफ़ी मागता हु जिन्हे कही से भी लगता हो की मैंने उनका दिल दुखाया है या उनका नुकसान किया है।

पिछले एक हफ्ते के अंदर मेरी जिंदगी के आस-पास इतनी जल्दी-जल्दी इतने रंग बदले जिनकी मैंने संभवत कामना नहीं की थी। सब कुछ बड़े अच्छे से चल रहा था। इवेंट कंपनी का काम भी बढ़ चुका था। पर शायद सोने के कुंदन बनने में अभी देर है।

इलाहबाद की कोचिंगो के इवेंट हमारे लगातार चल ही रहे है (जिसे पूरी तरह अवधेश देख रहे थे) चुनाव वाले इवेंट का मुख्य नामांकन वाला काम अच्छे से बीत चुका था (इशे भी अवधेश देख रहे थे) की इशी बीच १६ अप्रैल को अवधेश के पिता जी की तबीयत ख़राब होती है। १७ को उन्हें नाजरेथ में एडमिट कराते है। उनकी तबीयत में सुधार होने लगता है, अवधेश भी वापस काम पर लग जाते है। हम २० तारीख के इवेंट (उत्तर-प्रदेश के लखनऊ मंडल के एक शिक्षक विधायक के सम्मान) की तैयारी में लग जाते है। सब कुछ ठीक चल ही रहा होता है की २० को सुबह अवधेश फ़ोन करते है और बताते है की पिता जी को हॉस्पिटल में ही हार्ट की कुछ प्रॉब्लम हुई है मै कमरे पर आ गया हु जब तक मै हॉस्पिटल में पहुचता हु आप वहा तुरंत चले जाये, उन्हें ICU में शिफ्ट किया जा रहा है। मै तुरंत पहुचता हु और देखते ही देखते कुछ ही पलो में उनकी मृत्यु हो जाती है। (२० का इवेंट हमारी तरफ से कैंसिल हो जाता है) उनके सारे क्रिया कर्म कराने के बाद रात में मै अपने दो साथियो के साथ आजम खा साहब के रामपुर जिले के लिए निकल लेता हु क्योंकि इश इवेंट को हम चाह कर भी कैंसिल नहीं कर सकते थे। (इसमें अवधेश और अविनाश को भी जाना था पर परिस्थितिया अब कुछ और थी)

२१-२२ अप्रैल की रात में हमारा रामपुर में एक इवेंट लगा था। खैर सुबह हम लखनऊ पहुँचते है और वहा से रामपुर के लिए कोलकत्ता जम्मूतवी ट्रेन में सवार होते है। अभी शाहजहाँपुर से आगे बढ़ा रहता हु की दूसरे ट्रैक पर एक लड़के और लड़की का एक्सीडेंट हुआ दिखता है, जिसमे लड़की मर चुकी रहती है और लड़का भी सांसे गिन रहा होता है, पूछने पर पता चलता है की दोनों एक दूसरे से प्यार करते थे पर समाज के दबाव को नहीं झेल पाये और दोनों ने आत्महत्या के लिए चलती ट्रेन से छलांग लगा दी।

अगले दिन इवेंट ख़त्म कर वापसी के लिए सुबह हम रामपुर स्टेशन पहुँचते है और राज्यरानी ट्रेन में सवार होते ही है की एकाएक दूसरे प्लेटफार्म पर अपनी ही उम्र के एक इंसान की लावारिश लाश को देख कर मन काप उठता है, पता नहीं वो कहाँ से आया रहता है कहाँ को जाने वाला होता है उसको देख कर ऐसा लग रहा था मनो उसे मरे १०-१२ घंटे से ऊपर हो चुके हो, शरीर कड़ी हो चुकी रहती है चारो तरफ उसके शरीर का ब्लॅड और पानी फैला रहता है। फिर भी उसे कोई पूछता नहीं रहता है।
 
ट्रेन चल पड़ती है, हम हरदोई से पहले ही रहते है की दूसरे ट्रैक पर एक लड़की और एक बच्चे की ट्रेन से कटी लाश दिखती है रूह फिर काप उठती है। पूछने पर पता चलता है की एक ट्रैक पर माल गाड़ी जा रही होती है फाटक गिरा रहता है फिर भी न जाने वो किस जल्दी में फाटक पार कर दूसरे ट्रैक पर आ खड़े हो जाते है और मालगाड़ी के ख़त्म होने का इन्तेजार करने लगते है, मालगाड़ी के शोर में उन्हें कुछ सुनाई नहीं दे रहा होता है की तभी दूसरे ट्रैक पर कोइ ट्रेन आ जाती है और उन्हें काटते हुए चली जाती है।

कैसे भी करके रात में घर पहुँचता हु थके होने के कारण तुरंत नीद आ जाती है। पर आज जब मै बैठ कर इन सभी घटनाओ का निष्कर्ष निकाल रहा हु तो कई तरह के परिणामो पर पहुंच रहा हु। पल में जिंदगी कैसे बदल जाती है ये इन घटनाओ से निकल कर मेरे सामने आ रहा है। अगले पल क्या होने वाला है ये कोई नहीं जान सकता। ऊपर वाले के आगे किसी का जोर नहीं चल सकता। कर्म करने के बाद भी सारी योजनाये बनी की बनी रह जाती है फल देता ऊपर वाला ही है फिर हम और आप मेरा तेरा में क्यों लगे रहते है?

क्यों जाने अनजाने एक दूसरे का दिल दुखाते, उन्हें नुक्सान पहुचाने का हर एक प्रयास करते है? जहां जिंदगी का खुद कोई भरोसा नहीं है की अगले पल क्या होने वाला है वहा हम दुश्मन बनाते चलते है उनकी बद्दुआओ को इकठ्ठा कर उसका भार उठाते चलते है? जब चार दिन की ही जिंदगी है तो क्यों न हम कम से कम कुछ ऐसा करते चले की दुआ देने वाले न सही कम से कम बद्दुआ देने वाले भी न रहे।

कही प्रकृति और परमेश्वर मुझे कुछ समझाना तो नहीं चाह रहे है? निश्चित ही मैंने भी जाने अनजाने कइयों के दिल दुखाये होंगे, गलतिया मुझसे भी हुई होंगी आखिर मै भी एक इंसान हु। पर अब वक़्त ने शायद मुझे खुद को बदलने का एक मौका दिया है तो क्यों न मै इस मौके का फायदा उठाऊ? आखिर जब जागो तभी सवेरा। इस दिशा में कदम अभी से बढ़ाता हु।

मै उन सभी जाने अनजाने लोगो से माफ़ी मागता हु जिन्हे कही से भी लगता हो की मैंने उनका दिल दुखाया है या उनका नुकसान किया है। आपसे मेरा एक विनम्र अनुरोध ये भी है की मुझे मेरी गलतियों को सुधारने में मेरी मदद करे। "किंजल"

शुक्रवार, अप्रैल 18, 2014

ज़िंदगी न जाने कैसे कैसे? कितने रंग दिखाती है?

18 जुलाई 2013 को लिखी गयी और फेसबुक पर पोस्ट की गयी मेरे दिल से निकली हुई एक कविता। अभी एक दोस्त ने उस पर कमेंट किया तो वापस मुझे दिख गयी। सोचा क्यों न दिल से निकली हुई बातो को ब्लॉग पर भी डाल दू। 



ज़िंदगी न जाने कैसे कैसे? कितने रंग दिखाती है?
कल तक जो थे, अपनों से बढ़के अपने,
तरक्की उनको पल में बिछड़ा मित बनाती है।
कल तक जो एक थाली में खाते थे,
उनके बीच "स्टेटस" की रेखा खीच जाती है।
इस रंग मंच की काली दुनिया में,
तब हर रंग कही खो जाता है।
जब कोई बिछड़ा मित, हमे दुत्कार कर जाता है,
पर जाने क्यों? वो ये समझ नहीं पाता है......
"मंजिल अभी बाकी है मेरे दोस्त" "किंजल"
 

गुरुवार, अप्रैल 17, 2014

"हाए नेताजी……… और उनके चापलूस, चापलूसी की भी हद होती है यार"

      लोकसभा के इस चुनाव में प्रत्यक्ष रूप से न सही अप्रत्यक्ष रूप में ही, न चाहते हुए भी इन नेताओ के बीच में रहने का और पूरे चुनाव को सलीके से, नजदीक से देखने का मौका मिल रहा है......... आप सोच रहे होंगे वो कैसे? अरे सरकार इवेंट कंपनी चलाने का उससे जुड़ने का यही तो फायदा होता है. हर तरह के लोगो से मिलने का उनके कामो को नजदीक से देखने का समझने का मौका मिलता है, और साथ ही बहुत कुछ सीखने का भी। अब सोच रहे होंगे हमारी इवेंट कंपनी का नेता जी और उनके चापलूसों से क्या लेना देना? तो सरकार माजरा कुछ ऐसा है. एक नेता जी के चुनाव को मैनेज करने का एक छोटा सा काम हमने लिया है. बस उसी में लगे है। अब आता हु मुद्दे पर मतलब चापलूसों पर।
       चापलूसों की चापलूसी की सुरुवात तो सुबह से ही, घर से ही हो जाती है और पूरे दिन के बाद रात तक जारी रहती है। बात करता हु कल की. कल हमारे नेता जी का नामांकन था। सुबह से ही मै और मेरी पूरी टीम लग गयी थी पूरे नामांकन को मैनेज करने में। गाड़ियों को छेत्र के अलग अलग हिस्सों में लोगो को लाने के लिए दूरी के हिसाब से डीज़ल की पर्ची बनाकर भेजा जाने लगा था। लोगो का जुटना शुरू  हो चूका था अब बारी थी पेट पूजे की सबको टिफिन के पैकेट बटने लगे। फिर बारी थी हमारी, नेता जी के साथ डाइनिंग टेबल पर बैठने की साथ ही कुछ ख़ास चापलूसों की चापलूसियत को सुनने की।
           एक महोदय कहते है नास्ता बड़ा अच्छा है, ऐसा नास्ता सालो बाद खाने को मिला है तो दूसरे महोदय बोलते है मीठे मे जो पेठा रखा गया है इसके आगे तो आगरा का अंगूरी पेठा भी बेकार लगता।  अब उन चापलूसों को कौन बताता सुबह सुबह इतना समय किसके पास है? जो नास्ता बनाये ये तो नास्ता रात का बना हुआ था जो खाने में पता भी चल रहा था। और पेठा वो आगरा का नहीं बल्कि कुंतल के हिसाब से ख़रीदा गया रामबाग का था।
       कमरे से बहार हम निकलते है। दो नौजवान चापलूस मिलते है उनका दावा  रहता है की हमारे साथ २० बाइक वाले है सबके लिए पेट्रोल की पर्ची दिला  दीजिये, पर्ची पाने के बाद जब चलने की बारी आती है तो वो दोनों हमारे आगे वाली सफारी में सवार हो जाते है। ४५ किलोमीटर का सफर और रोड शो करने के बाद हम पहुँचते नामांकन स्थल पर इस दौरान कई सारे चापलूस मिलते है और उनकी बड़ी लम्बी लम्बी चापलूसियत का सिलसिला जारी रहता है। नामांकन होता है फिर इंतज़ार सुरु होता है मुख्या अतिथि महोदया का। एक घंटे बाद वो अपने लाल रंग के पुष्पक विमान से आशमा  से जमी पर उतरती है, मंच पर आती है और विरोधियो को गीदड़, सियार, हाथी और न जाने क्या क्या बनाके खुद को बब्बर शेर बनाती है और फिर से अगली सभा के लिए उड़ जाती है। इस दौरान कई सारे  चापलूस एंगल बदल बदल कर साथ में फोटो खिचवाने में लगे रहते है।
         सभा समाप्त होने के बाद नेता जी मुझसे पूछते है किंजल जी लगभग कितनी भीड़ थी? मै  कहता हु सर 5000 से ऊपर थी। जो की विनिंग  पोजीशन को दिखाती है। क्योकि एक दिन पहले ही ठीक इशी जगह पर राज्य में सत्ता रूढ़ दल व एक अन्य बड़े दल का नामांकन हुआ था जिसमे बमुश्किल 1000 लोग ही जुट पाये थे। फिर नेता जी अपने दो चार और विश्वसनीय लोगो से फीड्बैक लेते है। अब बारी आती है चापलूसों की..... नेता जी एक से पूछते है कितनी भीड़ थी वो  तपाक से जवाब देता है एक लाख से ऊपर थी भैया .....  नेता जी कहते है धत, तब तक दूसरा बोलता है भैया जी कम से कम 50,000 तो थी ही लिखवा लीजिए। नेता जी कहते है अरे यार सही सही बोलो कम से कम 10,000 थी ना ? सभी बोल पड़ते है हा भैया।


      इस दौरान कुछ ऐसे चापलूस भी मुझे मिलते है जो लगातार नेता जी के साथ लगे हुए थे, कई दिनों से नेता जी के आगे पीछे घूम रहे थे और बताते फिर रहे थे की हम इनके बचपन के दोस्त है तो हम इनके पडोसी है। फिर बात बात में मै उन चापलूसों से बात करता हु नेता जी की पार्टी के प्रधानमंत्री पद के प्रतयाशी के प्रधानमंत्री बनने की तो उनमे से कुछ तुरंत कहते है। उसे किसी भी कीमत में प्रधानमंत्री नहीं बनने देंगे। उसके हाथ खून से रंगे है, तो कुछ कहते है अगर वो बन गया तो हम दलितों का जीना  दुस्वार हो जायेगा …  और न जाने क्या क्या। फिर मै  सोचने लगता हु की क्या ये सच में चाहते है की नेता जी जीते या फिर केवल उनका उपभोग कर रहे है? क्योकि अगर इन्होने नेता जी को जिताया तो निश्चित वो प्रत्याशी ही प्रधानमंत्री बनेगा जिसे नेता जी की पार्टी ने मनोनीत किया है।  और अगर उसे प्रधानमंत्री नहीं बनाना चाहते है तो निश्चित तौर पर नेता जी को हराना होगा। अब देखते है चापलूस क्या करते है?
      रात में जब मै घर के ऊपरी हिस्से में बने काल सेंटर में बैठा रहता हु तब नेता जी आते है, मै नेता जी से पूछता हु सर इन चापलूसों को आप इतना झेलते कैसे है? क्या आपको नहीं दिखता की ये चापलूसी कर रहे है। वो जवाब देते है किंजल जी दिखता तो सब कुछ है पर क्या करू चुनाव है भाई। हर व्यक्ति हर किसी को संतुस्ट नहीं कर सकता है "मै अपना कर्म कर रहा हु, वो अपना" फल तो ऊपर वाला देगा। बाकि धन्यवाद है उस परमात्मा का जिसने मुझे इतनी समझ दी की मै लोगो को पहचान सकु।
        खैर ये तो पूरी बात थी नेता जी और उनसे जुड़े चापलूसों की, जहा तक मेरा मानना है सच में इस चुनाव में (जहा मेरी इवेंट कंपनी काम कर रही है) एक ऐसी हवा चल रही है जिसे रोक पाना नामुमकिन लग रहा है। निश्चित ही इसका मुख्य कारण पिछली केंद्र सरकार के पंखे का ठीक से न चल पाना और मौजूदा राज्य सरकार के पंखे के हवा की दिशा का रुख एक ख़ास वर्ग और कुछ जातियों की तरफ होना भी है


सोमवार, अप्रैल 14, 2014

काश उन्होंने इतना अहंकार न दिखाया होता। काश उन्होंने इन शब्दो को कभी सुना या पढ़ा होता कि "निस्चित मतभेद, मनमुटाव, घमंड अपने दरमयां रखो लेकिन ऐसा भी न हो कि भविष्य में कभी लौटना पड़े तो देख कर मुस्कुरा भी न सको"

29 दिसम्बर 2013 को मनीष सिशोदिया जी का एक पोस्ट फेसबुक पर देखने के बाद मेरे मन में कुछ विचार आ रहे थे जिसे मैंने उस समय अपने वाल पर शेयर किया था. आज वाल को चेक करते हुए ये मुझे फिर से दिखा तो सोचा क्यों न इसे अपने ब्लॉग पर भी डालु। पढ़िए और.……………


मै जब भी कभी एकांत में बैठता हु तो न चाहते हुए भी कई तरह के सवालो से लड़ते हुए उनके जवाब के लिए मन के समुन्दर में डूब कर गोते लगाने लगता हु, हल भी ढूँढता हु, पर..... सवाल के बदले में एक और नया सवाल जन्म ले लेता है और मै फिर गोते लगाने लगता हु.…! खैर एक सवाल अभी कुछ देर पहले मनीष जी का ये पोस्ट देखकर मन में उठने लगा. कि आखिर लोग इतने अहंकारी कैसे हो जाते है? आखिर लोगो को घमंड किस बात का होता है? जब अहंकार ब्रम्हा, विष्णु, महेश, रावण, इंद्रा तक का नहीं रहा तो फिर हम और आप कौन है? ये श्रिष्टि का अटल सत्य है कि- दिन सबके आते है. समय हमेशा बदलता है. अब वो चाहे किसी भी रूप में बदले, जिसने समय के साथ खुद को अहंकार से दूर रख कर सकारात्मक रूप में बदला वो अमर हो गया और जिसने इसका उल्टा किया वो……………आप खुद समझदार है …। काश उन्होंने इतना अहंकार न दिखाया होता। काश उन्होंने इन शब्दो को कभी सुना या पढ़ा होता कि "निस्चित मतभेद, मनमुटाव, घमंड अपने दरमयां रखो लेकिन ऐसा भी न हो कि भविष्य में कभी लौटना पड़े तो देख कर मुस्कुरा भी न सको" चलते-चलते यही कामना कि, आज संतोष जहा भी है भगवान् उसे शांति दे।
आज अगर संतोष होती तो शायद बगल की सीट पर बैठी होती. सचिवालय में कदम रखते वक्त आज बहुत याद आई संतोष.... दो साल पहले मुझे और संतोष को इसी सचिवालय से बाहर निकलवा कर फिंकवाया था, पूर्व मुख्यमंत्री और उनके सचिव पी. के. त्रिपाठी ने..... मैं और संतोष राशन की जगह कैश दिए जाने की स्कीम पर चर्चा करने आये थे... विरोध करते ही भडक गई थीं मैडम... पहले पुलिस बुलाकर मीटिंग से बाहर निकलवा दिया... और फिर सचिवालय से ही बाहर निकलवा दिया. इसके बाद दो साल तक यहां आना ही नहीं हुआ.... सचिवालय की बिल्डिंग आज भी वही है लेकिऩ, आज जनता ने उन मैडम को ही सचिवालय से बाहर निकाल दिया है...

क्या आज के समय में पुरुष और महिला के बिच के रिश्ते, प्यार और शरीर मात्र एक दुसरे के उपभोग की वस्तु बन कर रह गए है?

28 अगस्त 2013 को मैंने अपने फेसबुक वाल पर इलाहाबाद में घटी एक घटना के बाद ये पोस्ट डाला था, वाल को चेक करते हुए ये मुझे फिर से दिखा तो सोचा क्यों न इसे अपने ब्लॉग पर भी डालु। पढ़िए और पसंद आये तो सराहिएगा ........



कहते है, प्यार और क्रोध दोनों अँधा होता है, सोचे जब दोनों मिल जाये तब क्या होता होगा? शायद वही जो इलाहबाद विश्वविद्यालय की छात्रा के साथ हुआ। मीडिया में, लोगो में सबमे केवल यही चर्चा होने लगी। लड़के ने गलत किया, लड़के को उम्रकैद होनी चाहिए तो कोई कह रहा है फासी मिलनी चाहिए। कुछ सडक छाप लोगो और संस्थाओ को ठीक वैसे ही राजनीती करने का मौका मिल गया और कूदने लगे जैसे, बरसात के बाद सोये हुए मेढक। कोई उसे पचास लाख मुआवजा देने को कह रहा है तो कोई सड़क जाम करवा रहा है, कोई यूनिवर्सिटी बंद करवा रहा है तो कोई मीडिया के सामने कूद कूद कर रैली निकलवा रहा है। मीडिया के मेरे मित्र और गुरुजन भी उनका अच्छे से साथ दे रहे है, और बता रहे है की ऐसे पोज दो, ऐसे पत्थर चलाओ, एक साथ हाथ उठाओ तो अच्छी फोटो आएगी भीड़ दिखेगी। उससे भी ज्यादा मजे की बात तो ये है की प्रदर्शनकारियों मे से अधिकतर वो है जो खुद अपने से विपरीत लिंग को मात्र एक उपभोग की वस्तु मानते है और हमेशा एक भागम भाग मचाये रखते है की कौन कमेंट करने में, छेड़खानी करने में, हाथ पकड़ने में, पार्को में बैठने में और उसके बाद कमरे में ले जाने में आगे रहता है? अब वो क्या पुरुष ... क्या महिला ... बस मौका मिलने की देर है।
मन में आपके भी एक सवाल उठ रहा होगा, आखिर जेके इंस्टीटयूट की बीटेक तृतीय वर्ष की छात्रा पर उसके बचपन के दोस्त के द्वारा पेट्रोल में भीगी टीशर्ट फेंककर जलाने की जो घटना हुई उसके पीछे वजह क्या थी? "संछेप में समझिये" -
लड़का और लड़की इंटर तक साथ पढ़े, इस दौरान उनके बिच प्रेम सम्बन्ध बना, दोनों की फोन व फेसबुक पर हमेशा बात और मुलकात होने लगी। तीन साल बाद अब महीने भर से लड़की की नजदीकिय सूरत में रहकर एमटेक कर रहे अपने बचपन के सीनियर से बढ़ गई। और नौबत प्यार के इज़हार के आगे तक बढ़ गयी। पिछले 10 दिनों से लड़की ने जब लड़के से बातचीत बंद कर दी तो वह उससे मिलने के लिए इलाहबाद आ गया। लड़की को उसने फोन कर हॉस्टल से बाहर बुलाया। दोनों साथ काफी देर तक टहलते रहे। इस बीच लड़के ने लड़की का मोबाइल फोन चेक किया, जिसमें फेसबुक पर सीनियर से लंबी बातचीत का ब्योरा था। फेसबुक के जरिए सीनियर को भेजे गए संदेश में लड़की ने प्रेम का इजहार भी किया था। इन बातों से लड़का गुस्से में आ गया। और मजबूरन लड़की पर झुझलाने लगा तो वह उसे छोड़कर आगे बढ़ गई। और फिर क्या हुआ ये सबके सामने है।
इसमें कोई दो राय नहीं है की पुलिश ने बहादुरी का काम किया है पर ... मीडिया और पुलिश कह रही है की पुलिश ने उस हमलावर लड़के को बाद में टैम्पो से पकड़ा जबकि कई प्र्ताय्क्ष्दर्शी कह रहे है की लड़के ने आवेश में आग लगाने के बाद खुद उस लड़की को बचाने की कोशिस की जिसमे उसका भी हाथ काफी जल गया जिसका बाद में सरकारी अस्पताल में इलाज कराया गया। सरकारी डाक्टर कह रहे है लड़की पंद्रह प्रतिशत जली है, प्राइवेट डाक्टर कह रहे है वो तीस प्रतिशत जली है जबकि हिन्दुस्तान में छपी फोटो में वो सामान्य तौर पर स्ट्रेचर पर बैठी दिख रही है। अब हकीकत क्या है ये भगवान् या भुक्तभोगी जाने मै तो स्वतंत्र टिप्पणीकार हु, और केवल यही कहूँगा की कोशिश कीजियेगा प्यार और क्रोध का संगम न होने पाए, वर्ना .........
अब सवाल उठता है? क्या लड़का केवल एकतरफा मोहब्बत करता था? क्या कोई अपनी मोहब्बत को ऐसे ही आग लगा सकता है? आखिर इतनी हिम्मत उसमे आई कहा से? इस हिम्मत के पीछे क्या कारण थे? खुद सोचिये की आप उस लड़के की जगह होते तो क्या करते? दूर से कीचड़ फेकना बड़ा आशान होता है। क्या आप अपनी मोहब्बत को आग में तंदूरी मुर्गी बनने के लिए झोक सकते है? भाई मै तो नहीं।
मै कही से भी उस लड़के का समर्थन नहीं कर रहा हु। उसने गलत किया है इसमें कोई दो राय नहीं है, उसे इसके लिए कड़ी सजा भी मिलनी चाहिए। पर आखिर उसको ये सब करने के लिए मजबूर किसने और क्यों किया? क्या आज के समय में पुरुष और महिला के बिच के रिश्ते, प्यार और शरीर मात्र एक दुसरे के उपभोग की वस्तु बन कर रह गए है? अगर हा तो इसका कारण क्या है? खुद सोचिये और अगर न सोच पाए तो मुझे गरियाइए......

मंगलवार, मार्च 25, 2014

अभी सूरज नहीं डूबा, पहले नाम होने दो.…! किंजल




बहुत दिनों से कोई पोस्ट नहीं डाला था, अब क्या करता। थी ही कुछ ऐसी अवस्था-व्यस्तता, इस दौरान कई इवेंट बीते, कई नये पुराने लोगो से मिलना-बिछड़ना हुआ, काफी कुछ सीखने को भी मिला पर लगा अभी काफी कुछ सीखना भी बाकी है, शायद जिंदगी भी सीखने का ही नाम है.…… इस सीखने सिखाने के सफ़र में मै कभी आत्मविश्वास से इतना भर जाता की लगता "अब तो समय हमारा है" और कभी इतना टूट जाता कि लगता "अब तो कुछ न बचा यारो" इस बीच कभी लाखो में खेला तो कभी अठन्नी को भी टहला। कभी यारो कि जमघट लगाये बैठा तो कभी एक साथ को भी तरसा……… और भी न जाने क्या क्या हुआ.…… पर इस पूरे क्रम में, मेरी आपबीती से, मेरे मन से अभी जो भाव निकल रहे है वो कुछ ऐसे है .......... गौर कीजियेगा ……


शुक्रवार, फ़रवरी 28, 2014

चुनावों के मौसम में नेताओं का अभिनय

जब कुछ नेताओं को समाज के अलग अलग वर्गों के बीच उनकी समस्याएं सुनकर दुखी थोबड़ा बनाते हुए देखता हूँ तो मुझे बेचारे उन लोगों पे बड़ा तरस आता है जो अपनी समस्याएँ रो रो कर बताते हुए सोचते हैं कि अब उनकी समस्याओं का समाधान जरूर हो जाएगा क्योंकि राजा साहब बड़े दुखी हैं उनके लिए.
राजा साहब ने यही समस्याएँ पांच वर्ष पहले भी सुनी थी और सुनकर ऐसा ही दुखी थोबड़ा भी बनाया था, और पांच वर्ष पहले ही नहीं कई वर्षों से सुनते आ रहे हैं लेकिन उनका समाधान आज तक नहीं कर सके और हर दफा ऐसे अभिनय करते हैं कि जैसे ये समस्या आज ही पता चली हैं उनको...!

बेचारे परेशान लोग उनकी इस मुरझाई हुयी शकल को देखकर उन पर तरस खा लेते हैं और अपनी बागडोर फिर उनके हाथ में सौप देते हैं कि शायद इस दफा राजा साहब उनकी समस्याओं का समाधान जरूर करेंगे ...............ऐसे ही चला आ रहा है और चलता रहेगा..शायद.........................