गुरुवार, अप्रैल 28, 2011

जापानी एनसेफेलिटिस ( दिमागी बुखार )

जापानी एनसेफेलिटिस ( दिमागी बुखार )
चावलों के खेतों में पनपने वाले मच्छरों से (प्रमुख रूप से क्युलेक्स ट्रायटेनियरहिंचस समूह)। यह मच्छर जापानी एनसिफेलिटिस वायरस से संक्रमित हो जाते हैं (सेंट लुई एलसिफेलिटिस वायरस एंटीजनीक्ली से संबंधित एक फ्लेविवायरस)। जापानी एनसिफेलिटिस वायरस से संक्रमित मच्छरों के काटने से होता है। जापानी एनसेफेलाइटिस वायरस से संक्रांत पालतू सूअर और जंगली पक्षियों के काटने पर मच्छर संक्रांत हो जाते है। इसके बाद संक्रांत मच्छर पोषण के दौरान जापानी एनसेफेलिटिस वायरस काटने पर मानव और जानवरों में जाते हैं। जापानी एनसेफेलिटिस वायरस पालतू सूअर और जंगली पक्षियों के रक्त प्रणाली में परिवर्धित होते हैं। 


जापानी एनसेफेलिटिस के वायरस का संक्रमण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं होता है। उदारहण के लिए आपको यह वायरस किसी उस व्यक्ति को छूने या चूमने से नहीं आ सकता जिसे यह रोग है या किसी स्वास्थ्य सेवा कर्मचारी से जिसने किसी इस प्रकार के रोगी का उपचार किया हो।केवल पालतू सूअर और जंगली पक्षी ही जापानी एनसेफेलिटिस वायरस फैला सकते हैं।


लक्षण

सिर दर्द के साथ बुखार को छोड़कर हल्के संक्रमण में और कोई प्रत्यक्ष लक्षण नहीं होता है। गंभीर प्रकार के संक्रमण में सिरदर्द, तेज बुखार, गर्दन में अकड़न, घबराहट, कोमा में चले जाना, कंपकंपीं, कभी-कभी ऐंठन ( विशेष रूप से छोटे बच्चों में) और मस्तिष्क निष्क्रिय(बहुत ही कम मामले में), पक्षाघात होता है।जापानी एनसेफेलाइटिस की संचयी कालवधि सामान्यतः 5 से 15 दिन होती है। इसकीमृत्युदर 0.3 से 60 प्रतिशत तक है।

उपचार
इसकी कोई विशेष चिकित्सा नहीं है. गहन सहायक चिकित्सा की जाती है। यह रोग अलग अलग देशों में अलग अलग समय पर होता है. क्षेत्र विशेष के हिसाब से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले, वहां प्रतिनियुक्त सक्रिय ड्यूटी वाले सैनिक और ग्रामीण क्षेत्रों में घूमने वालों को यह बीमारी अधिक होती है। शहरी क्षेत्रों में जापानी एनसेफेलाइटिस सामान्यतः नहीं होता है।जापानी एनसेफेलाइटिस के लिए भारत में निष्क्रिय मूसक मेधा व्युत्पन्न (इनएक्टीवेटेड माउस ब्रेन-डिराइव्ड जे ई) जापानी एनसेफेलाइटिस टीका उपलब्ध है।

बुधवार, अप्रैल 06, 2011

गरीब बच्चो के माँ बाप की दुआ..और... दिमागी बुखार

गोरखपुर में पिछले 24 घंटो में 10 साल की स्मिता और 1 साल के माही की मौत हो गई. खबर में है कि पिछले 1 जनबरी से अब तक 944 मरीज गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में भर्ती हो चुके हैं जिसमें से 167 की मौत हो चुकी है. हकीकत यह है कि पिछले 3 सालों में गोरखपुर और उसके आसपास के इलाको में 10 हजार से ज्यादा बच्चे इस बुखार की चपेट में आकर दम तोड़ चुके हैं. फिर भी यह मुद्दा राष्ट्रीय आपदा नहीं बना. 100 से भी कम लोगों की स्वाइन फ्लू की मौत देश भर में हंगामा खड़ा कर देती हैं. कारण सिर्फ इतना कि यह फ्लू जिनको हुआ, उनमें से अधिकांश बड़े घर के लोग थे और पूर्वांचल में मरने बाले बच्चे अधिकतर गरीब घरों के थे.
दुनिया भर के किसी भी देश के एक मंडल में आज तक इतने बच्चे किसी एक बीमारी से नहीं मरे. और हमारा नपुंसक नेतृत्व इन मौतों के प्रति इतना संवेदनहीन बना रहा मानो मरने बाले बच्चे इंसानों के न हों. समझ नहीं आता हम कौन से समाज में जी रहे हैं. मैं इलेक्ट्रोनिक मीडिया की आलोचना नहीं करना चाहता पर क्या सभी चैनल अगर लगातार 1 सप्ताह तक यही खबर दिखाएं और उस पर परिचर्चा करवाएं, तब भी क्या हमारे देश के कर्णधार इन बच्चों को यूं ही मरने देंगे? अगर देश भर के अखबार अपना पहला पेज सिर्फ यह लिख कर खाली छोड़ दें कि लानत है ऐसे नेतृत्व को. तब भी क्या हालात में सुधार नहीं आएगा.
सरकार दावा कर रही है कि पूरे पूर्वांचल में इस बीमारी से बचने को टीके लगवा दिए गए हैं. फिर बच्चे कैसे मर रहे हैं? यूपी की सरकार कह रही है दिल्ली सरकार टीके नहीं दे रही. दिल्ली सरकार कह रही है कि यूपी सरकार टीके लगवा नहीं पा रही. बाद में यूपी सरकार कहती है कि जो टीके आये वो ख़राब थे और इसी सब राजनीति के बीच लगातार बच्चे मर रहे हैं.
गोरखपुर और उसके आसपास के गावों में जाकर देखिये. जरा भी बच्चे का शरीर गरम होता है तो माँ रोना शुरू कर देती है. वो जानती है कि अब उसका बच्चा नहीं बचेगा.
हम करोड़ों, अरबों रुपये खर्च करके राष्ट्रमंडल खेल करा सकते हैं और उसे देश के स्वाभिमान से जोड़ सकते हैं. मगर इस बात का संकल्प नहीं ले सकते कि चाहे कुछ भी हो जाये एक भी बच्चा अब इस बीमारी से मरने नहीं दिया जायेगा. अगर यह बच्चे अमीरों के होते तो अब तक देश में तूफान खड़ा हो चुका होता. संसद एक भी दिन नहीं चल पाती. अब इन हालात के बाद कोई यह पूछे कि नक्सली क्यों बनते हैं तो उसे मूर्ख ही कहा जायेगा.
बच्चों की मौत देश की उतनी ही गंभीर समस्या हैं जितनी कश्मीर या नक्सलवाद की. अफ़सोस यह कि इसे सबने स्वाभाविक मान लिया है. कोई शुरुआत नहीं करना चाहता. उम्मीद है कि उन माओं की खातिर जो अपने बच्चों  को मौत के मुंह में जाते देख रही हैं, अपने अपने स्तर से इस लड़ाई की शुरुआत करेंगे.

दिमागी बुखार से गरीब मरते हैं और स्वाइन फ्लू से अमीर


  इनसेफलाइटिस जिसे दिमागी बुखार कहते हैं, से गोरखपुर में पिछले 24 घंटो में 10 साल की स्मिता और 1 साल के माही की मौत हो गई. खबर में है कि पिछले 1 जनबरी से अब तक 500 मरीज गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में भर्ती हो चुके हैं जिसमें से 117 की मौत हो चुकी है. हकीकत यह है कि पिछले 3 सालों में गोरखपुर और उसके आसपास के इलाको में 10 हजार से ज्यादा बच्चे इस बुखार की चपेट में आकर दम तोड़ चुके हैं. फिर भी यह मुद्दा राष्ट्रीय आपदा नहीं बना. 100 से भी कम लोगों की स्वाइन फ्लू की मौत देश भर में हंगामा खड़ा कर देती हैं. कारण सिर्फ इतना कि यह फ्लू जिनको हुआ, उनमें से अधिकांश बड़े घर के लोग थे और पूर्वांचल में मरने बाले बच्चे अधिकतर गरीब घरों के थे.
दुनिया भर के किसी भी देश के एक मंडल में आज तक इतने बच्चे किसी एक बीमारी से नहीं मरे. और हमारा नपुंसक नेतृत्व इन मौतों के प्रति इतना संवेदनहीन बना रहा मानो मरने बाले बच्चे इंसानों के न हों. समझ नहीं आता हम कौन से समाज में जी रहे हैं. 
सरकार दावा कर रही है कि पूरे पूर्वांचल में इस बीमारी से बचने को टीके लगवा दिए गए हैं. फिर बच्चे कैसे मर रहे हैं? यूपी की सरकार कह रही है दिल्ली सरकार टीके नहीं दे रही. दिल्ली सरकार कह रही है कि यूपी सरकार टीके लगवा नहीं पा रही. बाद में यूपी सरकार कहती है कि जो टीके आये वो ख़राब थे और इसी सब राजनीति के बीच लगातार बच्चे मर रहे हैं.
गोरखपुर और उसके आसपास के गावों में जाकर देखिये. जरा भी बच्चे का शरीर गरम होता है तो माँ रोना शुरू कर देती है. वो जानती है कि अब उसका बच्चा नहीं बचेगा.
हम करोड़ों, अरबों रुपये खर्च करके राष्ट्रमंडल खेल करा सकते हैं और उसे देश के स्वाभिमान से जोड़ सकते हैं. मगर इस बात का संकल्प नहीं ले सकते कि चाहे कुछ भी हो जाये एक भी बच्चा अब इस बीमारी से मरने नहीं दिया जायेगा. अगर यह बच्चे अमीरों के होते तो अब तक देश में तूफान खड़ा हो चुका होता. संसद एक भी दिन नहीं चल पाती. अब इन हालात के बाद कोई यह पूछे कि नक्सली क्यों बनते हैं तो उसे मूर्ख ही कहा जायेगा.
बच्चों की मौत देश की उतनी ही गंभीर समस्या हैं जितनी कश्मीर या नक्सलवाद की. अफ़सोस यह कि इसे सबने स्वाभाविक मान लिया है. कोई शुरुआत नहीं करना चाहता.