शुक्रवार, अप्रैल 18, 2014

ज़िंदगी न जाने कैसे कैसे? कितने रंग दिखाती है?

18 जुलाई 2013 को लिखी गयी और फेसबुक पर पोस्ट की गयी मेरे दिल से निकली हुई एक कविता। अभी एक दोस्त ने उस पर कमेंट किया तो वापस मुझे दिख गयी। सोचा क्यों न दिल से निकली हुई बातो को ब्लॉग पर भी डाल दू। 



ज़िंदगी न जाने कैसे कैसे? कितने रंग दिखाती है?
कल तक जो थे, अपनों से बढ़के अपने,
तरक्की उनको पल में बिछड़ा मित बनाती है।
कल तक जो एक थाली में खाते थे,
उनके बीच "स्टेटस" की रेखा खीच जाती है।
इस रंग मंच की काली दुनिया में,
तब हर रंग कही खो जाता है।
जब कोई बिछड़ा मित, हमे दुत्कार कर जाता है,
पर जाने क्यों? वो ये समझ नहीं पाता है......
"मंजिल अभी बाकी है मेरे दोस्त" "किंजल"
 

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