शुक्रवार, जुलाई 26, 2013

ज्ञान की देवी को हमने आखिर धन्दे की देवी क्यों बना दिया है?

यूपी बोर्ड की मेरिट लिस्ट में इस साल इलाहबाद के कुकुरमुत्ता छाप स्कूलों और कोचिंगो के अधिकतर बच्चे छाये रहे। ये अलग बात है की बाद की प्रतियोगी परीक्षाओ में इन टापरो की हकीकत सामने आ ही जाएगी! कुछ दिनों पहले मेरा जिज्ञाषा वश संपादक कम दोस्त की हैसियत से उन बच्चो से मिलना हुआ। उनको और माहौल को देख कर लगा कही मै गलत बच्चो से तो नहीं मिल रहा हु? फिर मन में आया सरस्वती का वाश तो कही भी हो सकता है, आखिर कीचड़ में ही तो कमल खिलता है। सोचा क्यों न इश कमल को देखा ही जाये। न चाहते हुए भी मैंने उन बच्चो से कुछ सवाल पूछ ही लिये। पर अफ़सोस उनमे से कोई भी एक भी सवाल के सही जवाब नहीं दे सका। आखिर ऐसा क्यों? 

मैंने भी अपने आप से यही सवाल पुछा और इन अद्वितीय प्रतिभाओ को देख कर बाहर निकला तो आदतवश इसकी जड़ तक पहुचने के लिए निकल पड़ा। कुछ लोगो से पता किया तो मालूम चला की ये सब लक्ष्मी देवी और नक़ल के देवता की मेहरबानी है। कुछ और आगे बढ़ा तो GIC के अध्यापक महोदय मिल गये जिन्होंने इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए बताया की ये तो कुछ नहीं है। पिछले साल तो उस विद्यालय के प्रबन्धक की बच्ची भी up की मेरिट लिस्ट में आई थी जो की इनसे भी कही गयी गुजरी प्रतिभावान थी, ये सब यहाँ के अलावा सीधे आयोग से भी सेटिंग करके होता है। फिर बोले बढा भ्रस्ताचार है इस शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा की देवी सरस्वती को लोगो ने बेच दिया है, उनसे लोग व्यापार कराने लगे है, हमसे ये कभी न होगा,,,,,,
तभी उनके मोबाइल ने जगमगाते हुए गायत्रीमंत्र का उदघोष किया। मेरा मन खुश हुआ चलो कम से कम आना तो सफल हुआ, कुछ नहीं तो आज के दौर में एक ऐसे आदर्शवादी शिक्षक से ही मुलाकात हो गयी। तभी अध्यापक महोदय ने फ़ोन पर कहा ठीक है कल आ जाओ काम हो जायेगा लेकिन हा अब से ऐसी बाते कभी फ़ोन पर मत करना, आजकल पुलिस वाले किसी भी सरीफ का नंबर सर्विश्लान्स पर डाल देते है। फिर फ़ोन काट कर वो बताने लगे की आज कल UP TET के भाषा विषय की कॉपी हमी लोगो के द्वारा हमारे विद्यालय में ही जाची जा रही है, अगर हम उसमे किसी का परोपकार कर दे तो क्या बुरा है? बेचारो की जिन्दगी सवर जाएगी, पूरी जिंदगी हमे वो दुवाए देंगे साथ ही हमे हमारी मेहनत का कुछ फल भी मिल जायेगा............ 60,000 की तनखा में आज होता ही क्या है? उनकी बाते सुनकर मुझे लगा कही वो मुझसे भी तो ये आशा नहीं लगा बैठे है की कही से एकाद TET वाले दीनदुखियो को उनसे मिलवाऊ,,,,,,
खैर रात के दस बज चुके थे,,, घर के लिए निकल पड़ा और रास्ते में सोचने लगा की ज्ञान की देवी को हमने आखिर धन्दे की देवी क्यों बना दिया है? ऐसी शिक्षा का क्या मतलब जो हमे लोगो से नजर चुराने पर विवश कर दे? मास्टर जी के आदर्श आखिर केवल दूसरो के लिए ही क्यों? ऐसे बच्चो का आखिर भविष्य क्या होगा? क्या सच में 60,000 में कुछ नहीं होता? और न जाने क्या क्या।
..........तभी गाड़ी के सामने एक पिल्लै का बच्चा आ गया और मै सड़क पर।,,,,, दुखतो बहुत हुआ पर पिल्लै से ज्यादा अपने सड़क पर आने का,,,,,,,,,!
(फोटो के कुछ अंश को जानबूझकर मैंने ब्लर किया है)

Kinjal Kumar

गुरुवार, जुलाई 11, 2013

उत्तराखंड में तबाही की सच्चाई


हफ्तों से ऊपर हो गया। दिल-ओ-दिमाग पर हिमालय की बाढ़ के दृश्य छाए हुए हैं। खुली आंखों से जो टीवी पर दिख रहा है, आंख बंद करते ही कल्पना में भी वही बर्बादी के मंजर हैं। और बर्बादी का अंदाजा तक सही से नहीं लग पा रहा है। जो इलाके प्रभावित हुए हैं उन तक पहुंचा भी नहीं जा रहा है। इसलिए जैसे-जैसे बाढ़ का पानी उतर रहा है, बर्बादी के अंदाजे और बड़े, और भयावह होते जा रहे हैं।
बर्बादी के जितने भी अंदाजे लगाए जा रहे हैं, उनमें एक बात विशिष्ट है। मरने वालों की तादाद। शुरुआत 200 लोगों की मौत से हुई थी। फिर उत्तराखंड के सीएम ने कहा कि एक हजार लोग मरे हैं। फिर राज्य के आपदा प्रबंधन मंत्री ने कहा कि मरने वालों की तादाद 5000 तक पहुंच सकती है। अब अंदाजे लगाने का तो ऐसा है कि जिसका जो जी करे उतनी संख्या बता दे। समस्या यह है कि सभी अंधेरे में तीर चला रहे हैं क्योंकि सचाई यह है कि हमें कभी पता नहीं चलेगा कि असल में कितने लोग मारे गए। ऐसी डरावनी बात कहने के पीछे मेरा आधार हिमालय का दुर्गम इलाका है। कई कस्बे तो पूरे के पूरे गाद के नीचे कई-कई फुट तक दब गए हैं। उनमें कितने लोग मारे गए होंगे, इसका कभी पता नहीं चल पाएगा। जो लोग बह गए हैं, हो सकता है वे आगे जाकर धारा में कहीं मिल जाएं। लेकिन बहुत संभव है कि बहुत सारे लोग ऐसे इलाकों से लापता हुए होंगे जहां तक पहुंचा ही नहीं जा सकता। वे अब कभी नहीं मिलेंगे। जो कस्बे कई फुट गाद के नीचे दबे हैं, उन तक पहुंचना भी असंभव है। अब अगर कोई निर्माण होगा भी तो उसके ऊपर ही होगा। यानी कभी पता नहीं चलेगा कि नीचे कौन था, क्या था। बहुत सारे लोगों को लगेगा कि मैं कैसी बातें कर रहा हूं। दुखद है, कड़वी है, बहुत उदास करने वाली है, पर यही सचाई है।

अब हमारी कोशिश होनी चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा प्रभावित लोगों तक पहुंच सकें। स्थानीय लोगों के अलावा वहां टूरिस्ट और श्रद्धालु भी हैं। चार धाम यात्रा चल रही थी इसलिए श्रद्धालुओं की संख्या बहुत ज्यादा है। और गर्मी होने की वजह से पहाड़ों पर इस वक्त टूरिस्ट भी ज्यादा होते हैं। इनमें से लोकल लोगों की संख्या का तो पता लगाया जा सकता है क्योंकि सरकार के पास जनगणना का डेटा होगा। लेकिन टूरिस्ट और श्रद्धालुओं की सही-सही संख्या का पता कैसे लगेगा? धाम यात्राओं में एंट्री भले ही रेग्युलेटेड हो, लेकिन यह रेग्युलेशन सिर्फ एंट्री पॉइंट पर होता है। लेकिन उन लोगों की संख्या भी तो हजारों में होती है जो धाम तक पहुंच जाते हैं और फिर अपनी बारी का इंतजार करते हैं। इसी तरह टूरिस्टों की संख्या का भी बस अनुमान ही लगाया जा सकता है। हालांकि सरकार में टूरिस्टों की संख्या को लेकर भी बहसबाजी हो रही है, लेकिन कितने लोग आपदा का शिकार हुए और कितने लौट पाए, इसका बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है। जहां तक बचाव कार्यों का सवाल है तो यह सोचकर भी मन कांप उठता है कि ऐसे ऑपरेशन में आर्मी और पैरा मिलिट्री के जवान काम न करते तो क्या होता। हमारे पास राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अथॉरिटी है। राज्य सरकार का भी आपदा नियंत्रण विभाग है। लेकिन जब काम करने का मौका आता है ये किसी काम के नहीं रहते। इनमें रीढ़हीन रिटायर्ड बाबू भरे हुए हैं जो सरकरी घर, गाड़ियों और ऐसी सुविधाओं की खातिर अपने सरकारी आकाओं के सामने मिमियाने लगते हैं। और जब जरूरत पड़ती है तो या तो ये लोग गायब होते हैं, या फिर इन्हें पता ही नहीं होता कि क्या करना है और कैसे करना है। इस बार भी कहीं थोड़ी-बहुत कार्रवाई होगी, कई वादे किए जाएंगे। लेकिन कुछ वक्त बाद सब जस का तस हो जाएगा। रिटायरमेंट के बाद पोस्टिंग्स ऐसे ही अंधे की रेवड़ियों की तरह बंटती रहेंगी।
हमेशा सेनाएं ही काम आती हैं। फिर लोगों का यह सोचना कहां गलत है कि जब देश को जरूरत पड़ती है तो सेना के जवान ही हैं जो अपनी जान पर खेलकर भी काम आते हैं। और जब सेनाओं की तारीफ हो रही है, तब कुछ शब्द ऐसी संस्थाओं के लिए भी लिखे जाने चाहिए जिन्हें मीडिया, खासकर अंग्रेजी मीडिया सिर्फ कोसता है। जैसे आरएसएस और बाबा रामदेव के स्वयंसेवक। प्रभावित इलाकों में सबसे पहले ये स्वयंसेवक ही पहुंचे थे। बहुत से लोगों की जान इन्हीं स्वयंसेवकों की कोशिशों, उनकी फर्स्ट एड और उनके लाए खाने की वजह से बची।
किंजल कुमार

उत्तराखंड में शिव का तांडव

    उत्तराखंड जब यूपी का अंग था तब भी इसे 'देवभूमि' के रूप में ख्याति प्राप्त थी। अब एक स्वतंत्र राज्य के रूप में इसकी दैवी संपदा का आकर्षण अगर ज्यादा बढ़ा नहीं तो कम भी नहीं हुआ है। इस राज्य के कुल 13 जिलों में सभी किसी न किसी धार्मिक देवी-देवता के मंदिरों, विग्रहों या ऐतिहासिक-पौराणिक संदभों में जुड़े हैं। अप्रैल से जून और फिर सितंबर-अक्टूबर तक पर्यटन के 'महासीजन' में इन स्थलों की रौनक लौट आती है लेकिन समय बीतने के साथ यह रौनक भी सिर्फ भीड़ के जुटाव तक सीमित होती जा रही है। मई में राज्य के दो प्रमुख मंदिरों बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के कपाट खुलने के बाद उमड़ती भीड़ में अब पिछले कुछ सालों से भक्तों, धर्म प्रेमियों से कहीं ज्यादा सैलानियों और मनोरंजन करने वालों की भीड़ उमड़ने लगी।
प्रकृति की इस विनाशलीला से पहले जब हम बदरी-केदार यात्रा पर निकलते थे तो हमारे पुरनियों बताते है कि इस यात्रा पर जाने से पहले हमें अपना-अपना श्राद्ध संपन्न कर लेना पङता था । ऐसी परंपरा के पीछे उद्देश्य यही रहा होगा कि इन तीर्थों से वापसी निश्चित नहीं थी। पूरी बदरी, केदार, गंगोत्री, यमुनोत्री की चार धाम यात्रा सिर्फ भगवान भरोसे ही चलती रही है। घुमावदार चढ़ाई और ढलानों वाली सड़कों, सैकड़ों पुलों से होकर गुजरते यात्री और वाहनों की सुरक्षा का कोई खास प्रबंध नहीं है। कोई लेखा-जोखा नहीं है। सामान्य दिनों में भी लगभग पौने दो हजार किलोमीटर की दुर्गम पहाड़ी यात्रा कि सैकड़ों स्थितियां अब सामने हैं।

मिट्टी के पहाड़ों के बीच से गुजरती छोटी मोटर गाडि़यों को सड़क और हजारों फीट गहरी खाई के बीच सिर्फ पांच-छ: इंच के सड़क के किनारों से होकर गुजरना पड़ता है। कुछ पुल बन रहे हैं, कुछ की मरम्मत हो रही है पर गंदगी और निर्माण के मलबे का चारो ओर साम्राज्य है। भारत के पूर्व सवेर्यर जनरल ऑफ इंडिया और काशी विद्यापीठ के वर्तमान कुलपति डॉ. पृथ्वीश नाग बताते हैं कि भारत में चार धाम यात्रा के दो सर्किट हैं। पहला देशव्यापी (द्वारिका, बदरीनाथ, जगन्नाथ, रामेश्वर) और दूसरा उत्तराखंड तक सीमित है। बदरीनाथ दोनों में साझा है। सांस्कृतिक, धामिर्क तथा भौगोलिक दृष्टि से गुप्तकाशी के काशी विश्वनाथ मंदिर, गौरीकुंड, हरिद्वार, हृषिकेश, जागेश्वर, गोपेश्वर आदि भी महत्वपूर्ण हैं। धार्मिक-सांस्कृतिक क्षेत्र सीमा उत्तर में केदारनाथ से दक्षिण में वाराणसी तक विस्तृत है, जिसके प्रमुख देव शिव हैं। यह अद्वितीय सामंजस्य है। क्षेत्र में कहीं भी कुछ होता है तो पूरा क्षेत्र प्रभावित होता है।
डॉ. नाग की यह धर्म-परंपरा आधारित व्याख्या पर भी गौर करें- 'ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान शिव उत्तराखंड या पूरे भारत देश में हो रहे कथित विकास से प्रसन्न नहीं हैं। यह घटना कहीं आगे आने वाली किसी बड़ी विपदा या विभीषिका का संकेत तो नहीं है? हमारे लिए यह संपूर्ण एवं समग्र आत्मनिरीक्षण का अवसर है। कहीं यह भगवान शिव के 'तांडव' की शुरूआत तो नहीं?' बाजार बनते पहाड़ों की पीड़ा अलग है। सैरगाह में बदलते बदरी-केदार क्षेत्र में हहराती वेगवती नदियों अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी की धाराओं से पहाड़ों की शांति टूटती है परंतु पर्यटन के दिनों में यह पर्वतीय शांति हजारों-हजार वाहनों द्वारा पहाड़ों को रौंद डालने से भयावह लगने लगती है। केदारनाथ की चढ़ाई शुरू होने के स्थल गौरीकुंड पर दो-दो दिनों तक चलने वाला जाम, 'फाटा' हेलीपैड के पास जाम और सड़कों की दुर्दशा सभी इस देवभूमि की उपेक्षा की गवाह हैं।
हाल ही में इलाहाबाद के महाकुंभ में 10 करोड़ लोगों के लिए की गई व्यवस्था से भी कोई सीख नहीं ली गई। शिवालिक क्षेत्र के लिए सीजन में भी विशेष ट्रेन चलाने की किसी को सुध नहीं है। हादसे के बाद ट्रेनें चलाने की घोषणा जरूर की गई है। केदारनाथ की प्राकृतिक आपदा के कारणों के बारे में पूरा राष्ट्र चिंतित है। ग्लेशियर टूट पड़ा, बादल फटा या कोई बांध टूटा- ऐसी अनेक अटकलें या अफवाहें हैं। देश को जल्दी यह मालूम होना चाहिए कि इस दुघर्टना के असली कारण क्या हैं। केदारनाथ मंदिर और चार धाम यात्रा को एक वर्ष या तीन वर्ष के लिए बंद कर देना कोई हल नहीं है। इस क्षेत्र के लिए दूरगामी ठोस योजनाएं बनाकर दुर्गम चार धाम यात्रा का मार्ग सुगम बनाने के लिए वैष्णो देवी के 14 किलोमीटर पहाड़ी मार्ग को सुधारने के ऐतिहासिक प्रयास को मॉडल के रूप में लिया जा सकता है।
      पूरे उत्तराखंड में एक खास कानून की अनदेखी की गई है। इस कानून के अनुसार 5000 फीट से अधिक ऊंचाई वाले वनक्षेत्रों के वृक्ष कतई काटे नहीं जाने चाहिए, पर वृक्ष कटते रहे हैं। सुंदरलाल बहुगुणा और चंडीप्रसाद भट्ट जैसे पर्यावरण-समर्पित व्यक्तित्वों का अशक्त होना खलता है। हजारों साल पुराने मंदिर और आस्था के केंद्रों की यह देवभूमि पहली बार इतनी भीषण प्राकृतिक आपदा से क्षत-विक्षत है। इस क्षेत्र में पुनर्वास का काम बहुत कठिन है और इसमें बड़ी बाधा साधनों के अभाव की है। अभी तो सीमा सड़क संगठन और भारतीय सेना को इस आपदा में सराहनीय राहत कामो के लिए बधाई देनी चाहिए, लेकिन इस क्षेत्र के प्राथमिकता पर आधारित विकास और संरक्षण के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति और संसाधनों का जो टोटा दिखाई पड़ रहा है, उसके संकेत अच्छे नहीं हैं। 
 किंजल कुमार

मंगलवार, जून 04, 2013

कहा से? कहा को जा रहे है?

पर्यावरण दिवस के अवसर पर एक पत्रिका में प्रकाशित होने वाले हमारी NGO चिरागन के रेगुलर कॉलम के लिए लिखा गया मेरा लेख। जिसमे मैंने भारतीय संस्कृति में पर्यावरण के सम्बन्ध को वर्त्तमान की परिस्थिति से जोड़ कर उत्पन्न होने वाली समस्याओ को दिखाने की एक कोशिस की है

अगर हम ये कहे तो गलत नहीं होगा की मानव अपने आप में पर्यावरण से इतर कोई अलग इकाई नहीं है। वह पर्यावरण के प्राकृतिक घटक का ही एक अंग है और उसका अस्तित्व प्रकृति पर ही टिका हुआ है। हमारे प्राचीन ऋषि मुनि इस तथ्य से भली-भाँति परिचित थे कि "जड़ जगत" यानी भूमि, जल, पहाड़, वायु, वनस्पतियों, वन्यजीव, नदी-नाले एवं "चेतन जगत" यानी मनुष्य के पारस्परिक समानुपातिक सामंजस्य से ही पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी तन्त्र में संतुलन कायम रहता है। पारिस्थितिकी तन्त्र के किसी घटक के नष्ट होने से उसका दुष्परिणाम सम्पूर्ण पर्यावरण को भोगना पड़ता है।
ॠग्वेद, उपनिषद और जातक कथाओं से लेकर पुराणों तक में भारतीय संस्कृति की प्रकृति संरक्षण सम्बन्धी चिरन्तन धारा विद्यमान रही है। भारतीय ऋषि मुनियो ने प्राकृतिक शक्तियों को देवी-देवताओ का स्वरूप माना। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि वगैरह देव माने गए तो नदियाँ पवित्र देवियाँ और पृथ्वी को माँ। वृक्ष देवों के वास-स्थल बने तो वही कुएँ, तालाब और बावड़ियों के धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व भी उभरे। पशु-पक्षियों को देवताओं का वाहन बनाकर इन्हें श्रेष्ठता प्रदान की गयी तो गाय-बैल भारतीय लोकजीवन में कितने समाहित हुए, इससे शायद ही कोई अनजान हो।
मगर समय का चक्र बहुत कुछ बदल देता है। उन्नीसवीं सदी में हुई औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् मानव की लालसा को पंख लग गए। उपभोक्तावादी जीवन-मूल्यों का विकास होने लगा। भारतीय भी इस जीवन-पद्धति के प्रवाह से अपने को बचा नहीं सके। फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का बेलगाम सिलसिला शुरू हो गया। इस सन्दर्भ में जो भी पारम्परिक अनुशासन और मर्यादाएं थीं, सब ताक पर रख दी गई। परिणामत: आज समस्त विश्व पर्यावरण प्रदूषण और पारिस्थितिकी असंतुलन की भयावह समस्या से आक्रांत है। अभी न हमारी नदियों का जल शुद्ध रह गया है और न वायुमण्डल। भूगर्भीय जल भी अर्सेनिक और फ्लूराइड जैसे तत्वों से जहरीला होने लगा है। यहाँ तक कि अन्तरिक्ष में भी प्रदूषण के कदम पड़ चुके हैं और यह सब हो रहा है- विकास के नाम पर। पुराने समय में पर्यावरण को लेकर कैसी सोच थी, इसे समझने में ‘मत्स्यपुराण'  का यह कथन दृष्टव्य है-
‘‘दशकूप समावापी, दशवापी समोहृद:।
दश हृद सम: पुत्रो, दश पुत्र समोवृक्ष:।।"
इसमें बताया गया है कि दस कुओं के समतुल्य एक बावड़ी है। दस बावडियों के बराबर एक तालाब है। दस तालाबों के सदृश्य एक पुत्र है और दस पुत्रों के समान एक वृक्ष होता है। सोचिये कभी इतना समाहित था लोकजीवन में वृक्ष! जरूरत होने पर भी लोग हरे वृक्ष को नहीं काटते थे। यह जनश्रुति मिलती है कि राजस्थान में खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा में माहेश्वरी समुदाय के लोगों ने प्राण तक न्योछावर कर दिए थे। मगर बीसवीं सदी के आठवें दशक तक आते-आते पैसे की लिप्सा ऐसी बलवती हुई कि आम, महुआ, जामुन जैसे फलदार वृक्ष बेचे-काटे जाने लगे। सघन छांव वाले गांव बंजर उजाड़ होते गए।
ऊर्जा, ईंधन और इमारती लकड़ी के लिए पिछले सौ साल से जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला जारी है। एक समय तो ऐसा आ गया था, जब लगने लगा था कि अब पहाड़ सदैव के लिए नंगे-बूचे हो जायेंगे। किन्तु सुन्दरलाल बहुगुणा के ‘चिपको आन्दोलन' का इस दिशा में सकारात्मक परिणाम आया। इससे पर्वतीय क्षेत्रों में अनियन्त्रित कटान पर तो रोक लगी ही, वृक्षारोपण को प्राणवायु भी मिल गई। वृक्ष सिर्फ कार्बन डाई आक्साइड का अवशोषण करके आक्सीजन का उत्सर्जन ही नहीं करते, बल्कि मृदा संरक्षण और परिवर्धन का गुरुतर दायित्व भी निभाते हैं।
जहाँ जंगल कटते हैं, उस क्षेत्र में अपक्षयन की क्रिया आरम्भ हो जाती है। बरसात के समय वहाँ की मृदा को प्राकृतिक संरक्षण नहीं मिल पाता। फलस्वरूप भूक्षरण में वृद्धि होने लगती है। कुछ वर्षों में उस क्षेत्र की मृदा का पूर्णतया सफाया हो जाता है और अन्दरूनी सिल्ट सतह पर आ टिकती है। ऐसी स्थिति में वह इलाका बंजर में परिवर्तित होने लगता है। मृदा के अभाव में वर्षा का पानी पृथ्वी में अवशोषित होने के बजाय सीधे स्थानीय नदी-नाले में मात्र कुछ घंटों में समा जाता है। इसके तीव्र बहाव में आस-पास के कृषि भूमि की मृदा भी कटने लगती है। पृथ्वी के दो-तीन इंच के ऊपरी भाग में एंथ्रोपोड्स, प्रोटोजोआ, कवक, गोलक्रिमियाँ आदि रहती हैं। मृदा व ह्यूमस के निर्माण तथा मिट्टी की उर्वरकता की संरक्षा में इनका अहम् स्थान है। कटान के साथ यह पूरा सूक्ष्म तन्त्र भी अपक्षयन की भेंट चढ़ जाता है। भूमि की उर्वराशक्ति की कमी से कृषि घाटे का सौदा बन जाती है। लिहाजा कृषि से जुड़ें व्यक्ति रोजी की तलाश में शहरों की तरफ भागते हैं। इससे शहरों में स्वच्छता, शुद्ध पेय जलापूर्ति और मलिन बस्तियों में वृद्धि की समसया पैदा होती है जो अन्तत: शहरों की प्रदूषणकारी स्थितियों को और जटिल बनाती हैं।
पृथ्वी की सतह की सिल्ट वर्षा के पानी के साथ बहकर नदी-नालों के पेंदे में पहुँच जाती है। जिसके कारण मृदा और बालू से नदियों-नालों के प्रवाह क्षेत्र की चौड़ाई और गहराई संकुचित हो जाती है। फलत: उनके प्रवाह क्षेत्र के लोगों को बाढ़-बूड़ा का प्रकोप झेलना पड़ता है। घाघरा, राप्ति, कोसी, बूढ़ी गंडक, दमोदर, यमुना आदि नदियों में प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ के पीछे इनके प्रवाह क्षेत्र के आसपास के वनों का विनाश भी मूल कारण है। वनों पर मानव अतिक्रमण का परिणाम है-  वन्य जीवों का गाँवों के आस-पास विचरण! हाथी, हिरन, बाघ, तेन्दुआ, लकड़बग्घा जैसे जंगली जानवर कृषि और रिहाइशी क्षेत्र में आकर जान-माल के लिए खतरा बनते हैं। कई ऐसे भी वन्य जीव हैं, जो अपने प्राकृतिक वास के छिनने के बाद संसार से लुप्त होते जा रहे हैं। गिद्ध, कठफोडवा जैसे जाने-पहचाने पक्षी ऐसे ही संकटग्रस्त स्थिति से गुजर रहे हैं। अति दोहन के फलस्वरूप कई औषधीय महत्व की वनस्पतियाँ जो पहले खूब दिखती थीं, अब खोजने पर भी नहीं मिलतीं। यह पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन का मामला है, जिसके प्रदूषण सम्बन्धी दूरगामी दुष्परिणाम सामने आते हैं।
सन् 2011 की ‘भारतीय वन आख्या' के अनुसार, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 23.81 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है। जबकि पचास साल पहले देश का 40 प्रतिशत भूभाग वनों से आच्छादित था।
अब कुओं, बावड़ियों का अस्तित्व मिटता जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश को धता बताते हुए तालाब निरन्तर पाटे जा रहे हैं। जल भण्डारण के इन पारम्परिक संसाधनों के नष्ट होने का नतीजा है कि भूगर्भीय जल स्तर निरन्तर नीचे भाग रहा है।
वायु जो हमारे जीवन का आधार है, लगातार विषैली होती जा रही है। बढ़ते औद्योगीकरण और स्वचालित वाहनों से निकलने वाला धुँआ वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण है। धुएं में मुख्य तौर पर कार्बन डाई आक्साइड, वैजोपाइरीन, कार्बन मोनोआक्साइड, सल्फर ट्राई आक्साइड, अधजले पेट्रोल का वाष्प, गंधक के आक्साइड, अधजले हाइड्रोकार्बन, नाइट्रोजन के विभिन्न आक्साइड, राख आदि हैं। यह मानव स्वास्थ्य से लेकर ओजोन छतरी को भी क्षतिग्रस्त कर रहे हैं।
मौसम विज्ञानियों के अनुसार, वायुमण्डल में घुले और तैरते प्रदूषक पृथ्वी के मौसम चक्र और गर्मी-सर्दी को प्रभावित कर रहे हैं। एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि वायु के अन्दर धुएँ का सघन प्रदूषण, पी०एम०-10 नाम के काले जहर के रूप में परिणत हो रहा है। यह सांस के जरिये फेफड़े में जाता है और हृदयाघात व कैंसर जैसी बीमारियों का कारण बनने लगा है। देश की नदियों का हाल और खराब है। नदियाँ अपने तटवर्ती नगरों का मलिन जल तो ढोती ही हैं, यहाँ स्थित चमड़ा, रसायन, कागज, चीनी, इस्पात संयंत्र, उर्वरक, खाद्य प्रसंस्करण, रंगाई-छपाई आदि उद्योगों का अपशिष्ट जल भी इसमें गिराया जाता है। योजना आयोग की स्वीकृति है कि ‘उत्तर की डल झील' से लेकर दक्षिण की पेरियार और चालियार नदियों तक, पूरब में दामोदर तथा हुगली से लेकर पश्चिम की ढाणा नदी तक जल प्रदूषण की स्थिति भयावह है।' नदी जल का तापमान, क्षारीयता, कठोरता, क्लोराइड की मात्रा, पी.एच.मान., बी.ओ.डी. आदि में लगातार असंतुलन पैदा हो रहा है। अब यह न्यूनतम स्तर से बहुत आगे और जटिल हो चुका है। हुगली, दमोदर, चम्बल, तुंगभद्रा, वरुणा, सोन, कावेरी, हिंडन, गोमती, सई, तमसा जैसी कई नदियों में मत्स्य प्रजातियाँ, जलीय जीव और शैवाल सदैव के लिए समाप्त होते जा रहे हैं। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, इनमें कई नदियाँ मौत की दिशा में बढ़ रही हैं।
जलवायु परिवर्तन 21वीं सदी की सबसे जटिल चुनौतियों में से एक है। इसके प्रभाव से कोई देश अछूता नहीं है। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों से कोई देश अकेले नहीं निपट सकता। जलवायु परिवर्तन का विकास, आपदा और निर्धनता से निकट का संबंध है।
हमारे पर्यावरण का ये संकट हमे सोचने पर मजबूर कर रहा है की विकाश की अंधी भागम भाग में हम अपने अस्तित्व को कहा खोते जा रहे है? हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए किस सौगात की रचना कर रहे है? सन् 1992 में रियो-डि-जानिरो में सम्पन्न ‘पृथ्वी शिखर सम्मेलन' मे पर्यावरण के संरक्षण, संवद्र्धन और संपोषण के मुद्दे को जन सामान्य के बीच जिस प्रकार की चर्चा और स्वीकृति मिली थी, वह शुभ लक्षण थे। वास्तव में पर्यावरण संरक्षा के कितने भी कानून बनाए जाएं, कैसी भी कल्याणकारी योजनाओं की उद्घोषणा हो, जन सामान्य की प्रतिबद्धता के अभाव में वह अर्थहीन ही रहेगी। किन्तु आज की तारीख में नई विश्व व्यवस्था के निर्माण और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पर्यावरण के सवाल को जैसा महत्व मिल रहा है, वह आने वाली उम्मीदों भरी नई सुबह का आगाज दिखाती है।
किंजल कुमार