गुरुवार, जुलाई 11, 2013

उत्तराखंड में तबाही की सच्चाई


हफ्तों से ऊपर हो गया। दिल-ओ-दिमाग पर हिमालय की बाढ़ के दृश्य छाए हुए हैं। खुली आंखों से जो टीवी पर दिख रहा है, आंख बंद करते ही कल्पना में भी वही बर्बादी के मंजर हैं। और बर्बादी का अंदाजा तक सही से नहीं लग पा रहा है। जो इलाके प्रभावित हुए हैं उन तक पहुंचा भी नहीं जा रहा है। इसलिए जैसे-जैसे बाढ़ का पानी उतर रहा है, बर्बादी के अंदाजे और बड़े, और भयावह होते जा रहे हैं।
बर्बादी के जितने भी अंदाजे लगाए जा रहे हैं, उनमें एक बात विशिष्ट है। मरने वालों की तादाद। शुरुआत 200 लोगों की मौत से हुई थी। फिर उत्तराखंड के सीएम ने कहा कि एक हजार लोग मरे हैं। फिर राज्य के आपदा प्रबंधन मंत्री ने कहा कि मरने वालों की तादाद 5000 तक पहुंच सकती है। अब अंदाजे लगाने का तो ऐसा है कि जिसका जो जी करे उतनी संख्या बता दे। समस्या यह है कि सभी अंधेरे में तीर चला रहे हैं क्योंकि सचाई यह है कि हमें कभी पता नहीं चलेगा कि असल में कितने लोग मारे गए। ऐसी डरावनी बात कहने के पीछे मेरा आधार हिमालय का दुर्गम इलाका है। कई कस्बे तो पूरे के पूरे गाद के नीचे कई-कई फुट तक दब गए हैं। उनमें कितने लोग मारे गए होंगे, इसका कभी पता नहीं चल पाएगा। जो लोग बह गए हैं, हो सकता है वे आगे जाकर धारा में कहीं मिल जाएं। लेकिन बहुत संभव है कि बहुत सारे लोग ऐसे इलाकों से लापता हुए होंगे जहां तक पहुंचा ही नहीं जा सकता। वे अब कभी नहीं मिलेंगे। जो कस्बे कई फुट गाद के नीचे दबे हैं, उन तक पहुंचना भी असंभव है। अब अगर कोई निर्माण होगा भी तो उसके ऊपर ही होगा। यानी कभी पता नहीं चलेगा कि नीचे कौन था, क्या था। बहुत सारे लोगों को लगेगा कि मैं कैसी बातें कर रहा हूं। दुखद है, कड़वी है, बहुत उदास करने वाली है, पर यही सचाई है।

अब हमारी कोशिश होनी चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा प्रभावित लोगों तक पहुंच सकें। स्थानीय लोगों के अलावा वहां टूरिस्ट और श्रद्धालु भी हैं। चार धाम यात्रा चल रही थी इसलिए श्रद्धालुओं की संख्या बहुत ज्यादा है। और गर्मी होने की वजह से पहाड़ों पर इस वक्त टूरिस्ट भी ज्यादा होते हैं। इनमें से लोकल लोगों की संख्या का तो पता लगाया जा सकता है क्योंकि सरकार के पास जनगणना का डेटा होगा। लेकिन टूरिस्ट और श्रद्धालुओं की सही-सही संख्या का पता कैसे लगेगा? धाम यात्राओं में एंट्री भले ही रेग्युलेटेड हो, लेकिन यह रेग्युलेशन सिर्फ एंट्री पॉइंट पर होता है। लेकिन उन लोगों की संख्या भी तो हजारों में होती है जो धाम तक पहुंच जाते हैं और फिर अपनी बारी का इंतजार करते हैं। इसी तरह टूरिस्टों की संख्या का भी बस अनुमान ही लगाया जा सकता है। हालांकि सरकार में टूरिस्टों की संख्या को लेकर भी बहसबाजी हो रही है, लेकिन कितने लोग आपदा का शिकार हुए और कितने लौट पाए, इसका बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है। जहां तक बचाव कार्यों का सवाल है तो यह सोचकर भी मन कांप उठता है कि ऐसे ऑपरेशन में आर्मी और पैरा मिलिट्री के जवान काम न करते तो क्या होता। हमारे पास राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अथॉरिटी है। राज्य सरकार का भी आपदा नियंत्रण विभाग है। लेकिन जब काम करने का मौका आता है ये किसी काम के नहीं रहते। इनमें रीढ़हीन रिटायर्ड बाबू भरे हुए हैं जो सरकरी घर, गाड़ियों और ऐसी सुविधाओं की खातिर अपने सरकारी आकाओं के सामने मिमियाने लगते हैं। और जब जरूरत पड़ती है तो या तो ये लोग गायब होते हैं, या फिर इन्हें पता ही नहीं होता कि क्या करना है और कैसे करना है। इस बार भी कहीं थोड़ी-बहुत कार्रवाई होगी, कई वादे किए जाएंगे। लेकिन कुछ वक्त बाद सब जस का तस हो जाएगा। रिटायरमेंट के बाद पोस्टिंग्स ऐसे ही अंधे की रेवड़ियों की तरह बंटती रहेंगी।
हमेशा सेनाएं ही काम आती हैं। फिर लोगों का यह सोचना कहां गलत है कि जब देश को जरूरत पड़ती है तो सेना के जवान ही हैं जो अपनी जान पर खेलकर भी काम आते हैं। और जब सेनाओं की तारीफ हो रही है, तब कुछ शब्द ऐसी संस्थाओं के लिए भी लिखे जाने चाहिए जिन्हें मीडिया, खासकर अंग्रेजी मीडिया सिर्फ कोसता है। जैसे आरएसएस और बाबा रामदेव के स्वयंसेवक। प्रभावित इलाकों में सबसे पहले ये स्वयंसेवक ही पहुंचे थे। बहुत से लोगों की जान इन्हीं स्वयंसेवकों की कोशिशों, उनकी फर्स्ट एड और उनके लाए खाने की वजह से बची।
किंजल कुमार

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