रविवार, अप्रैल 21, 2013

किंजल की कलम से किंजल सिंह और न्याय की देवी

        न्याय की देवी की जब भी परिकल्पना हुई होगी तो शायद यही सोच कर हुई होगी की समाज में सामंजस्य बना रहे। लोगो के अन्दर अपराध, बुराई के प्रति एक डर बना रहे। ताकि लोग चैन और सुकून से समाज में सास ले सके। हमने बचपन से ही न्याय के ना जाने कितने ही किस्से, कहानिया अपने बड़े बुजुर्गो से सुनी होंगी, ताकि हम भी उन गलत राहो पे ना जाये जैसा की उन किस्सों कहानियो में अपराधी जाते थे, अगर गलती से भी हम उधर जाने की सोचे तो अपराधियों को मिली सजा का डर हमे अपने कदमो को वापस खीचने पर विवश कर दे। कालांतर से लेकर अब तक न्याय के नियम और न्याय की देवी का रूप न जाने कितनी ही बार बदला। जिसकी सत्ता रही, प्रभाव रहा उसने उन्हें अपने अनुसार ढाल लिया, आज की न्याय की देवी ने अपनी आँखों पर काली पट्टी शायद इशी लिए बधवाना स्वीकार किया होगा ताकि वो सबको एक सामान नजर से देख सके, वो आमिर-गरीब, जात-पात, धर्म-संप्रदाय में लोगो को न देख केवल सत्य, तथ्य और सबूतों को अपने उस तराजू में रख कर तौल सके जिसको उन्होंने अपने हाथो से संतुलित अवस्था में पकड़ा हुआ है और परिणाम स्वरुप सत्य, कर्तव्य, निष्ठा में लोगो का विश्वाश न्याय से, न्याय के प्रति, समाज के प्रति जगा सके।
        न्याय के हमने ना जाने कितने ही किस्से सुने, जिनमे हमने कभी पल में न्याय होते देखा तो कभी न्याय की आशा में सदियॊ को गुजरते, पीढियों को मरते। कभी न्याय के किस्सों को सुनकर मन हर्ष से भर उठता तो कभी न्याय के कुछ दुसरे किस्सों को सुनकर वही मन शर्म से भर उठता। मन में अक्सर एक वेदना भी उठती की आखिर ऐसा क्यों होता है ? क्या कारण है? की मन को शर्म से भरना पड़ता है।
        तो सोचा क्यों ना न्याय के मंदिर से निकले, न्याय के किस्सों रूपी संग्रह के कुछ पन्नो को पलट कर देखा जाये। जब पन्नो को पलटा तो महसूश हुआ की, न्याय के इन संग्रहों के पन्नो को जब भी हम पलट कर देखेंगे तो उसमे न जाने कितने ही ऐसे काले अध्याय लिखे मिलेंगे, जो हमे ना चाहते हुए भी अपनी इस व्यवस्था को कोसने को मजबूर करेंगे। ऐसे किस्सों को सुनाने बैठू तो शायद सदिया गुजर जाये पर वो किस्से ना ख़त्म होगे। और फिर सदियों का समय ना आप दे पाएंगे और ना ही मै उन्हें संभाल। न्याय के मंदिर से, न्याय की देवी का, कहने को न्याय रूपी निकला केवल एक ही किस्सा आपको सुनाता हु। जो अभी कुछ दिनों पहले आया है। और शायद अब भी आपकी जहाँ में जिन्दा होगा। जो शायद इश न्याय व्यवस्था का वो दूसरा चेहरा भी आपको दिखायेगा।
        ये किस्सा है: 13 मार्च 1982 के उत्तर-प्रदेश के गोंडा जिले के मधवापुर गाव का, जब स्वार्थवश एक फर्जी मुठभेड़ में तत्कालीन गोंडा के DSP स्वर्गीय श्री कृष्ण प्रताप सिंह समेत दर्जन भर निर्दोष गाव वालो को उन्ही के विभाग के भ्रष्ट सहयोगियों ने गोली का सिकार बना हत्या कर दी थी। कृष्ण प्रताप सिंह सिंह जी के परिवार में उस समय उनकी पत्नी विभा सिंह  और दो बच्चिया किंजल गोद में और प्रांजल माँ के पेट में थी। उनकी पत्नी के लिए न्याय की लड़ाई लड़ना कितना कठिन हो गया होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। वो भी तब जब फर्जी मुडभेड को अससली का रूप दिया जा चूका हो, जाच करने वाले और आरोपी कोई और नहीं बल्कि खुद पुलिश वाले ही हो। दुनिया की रीत है अगर अपवादों को छोड़ दे तो बुरे वक़्त में जाने पहचाने तो क्या अपने भी साथ छोड़ देते है पर यहाँ भी माँ नहीं घबराई और जीवन में केवल तीन ही मकसद ठान लिया। पहला तो अपनी बच्चियों का अच्छा लालन-पालन कर एक सफल इंसान बनाना, दूसरा अपने पति और उनके साथ मरे गए निर्दोष ग्रामीणों के साथ दोषियों को कठोर सजा दिलाना और तीसरा अपनी बच्चियों के द्वारा उस आवाज को बुलंद करना जिसको बुलंद करते-करते उनके पति ने अपने प्राणों की आहुति दे दी मतलब भ्रसटाचार के खिलाफ आवाज।
        ये पूरी राह आशान न थी। उन्होंने दोनों को न जाने कितनी ही राते जागते हुए, आचल की आड़ में सिसकिया लेते हुए, गैरो से ज्यादा अपनों से मिले जख्मो को सुखाते हुए जीवन संघर्षो के बीच उन्हें पाला। पर शायद खुदा को इतने में भी सबर न था, या यु कहे की बच्चियों को कुंदन बनने के लिए अभी और आग में तपना था। दोनों बच्चियों ने अभी ठीक से होश भी ना संभाला था की माँ को कैन्सर ने जकड लिया था। अब उस माँ के सामने कई और चुनौतिया आन खड़ी थी। चुनौतियों का सामना करते हुए उस माँ ने अपनी दोनों बच्चियों को उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली भेज दिया। अभी पढाई चल ही रही थी की अक्टूबर 2004 में माँ भी चल बसी। उनके निधन के दो दिनों बाद किंजल का पेपर था। दुखो से दबी पर साहस से भरी किंजल ने हर चुनौती का सामना किया और न सिर्फ पास हुई बल्कि गोल्ड मैडल भी हाशिल किया। दुखो के घोर अधेरो के बिच दोनों ने पढाई जारी रक्खी और ठान लिया IAS बनने का। अपने माँ पापा के आशीर्वाद से और उनके दिए साहस से दोनों ने एक साथ परीक्षा दी और दोनों का एक साथ चयन अखिल भारतीय सिविल सेवा में हुआ। दोनों की आँखे आशुओ से नम थी, उनमे कुछ ख़ुशी के थे तो कुछ गम के, ख़ुशी माँ बाप के सपनो को पूरा करने की और गम उनके साथ न होने का। आज दोनों के पास सब कुछ है, धन, दौलत, रुतबा, सोहरत, ताकत और वो रिश्तेदार भी जो कस्ट के समय दामन छुड़ा के चले गए थे और आज गर्व करते नहीं अघाते की हमारे रिश्तेदार किंजल UP IAS कैडर से बहराइच जिले की DM है। जबकि प्रांजल चंडीगढ़ में कस्टम कलेक्टर।
        शायद सही ही कहा है, "हर दिन होत ना एक समान" पर लड़ाई अब भी बाकी थी, माँ के पहले मकसद को पूरा कर चुकी बेटियों के सामने, पिता और निर्दोष ग्रामीणों को न्याय दिलाने की लड़ाई अब भी जारी थी। दिन पड़ता, तारीख पड़ती, मजमा लगता और वक्त गुजर जाता। फिर वो 5 अप्रैल 2013 का दिन भी आया जब CBI कोर्ट ने UPP के वर्तमान दरोगा पाण्डेय सहित तीन अन्य को फासी व अन्य कई को उम्रकैद की सजा सुनाई।
अपने माँ के दुसरे मकसद को भी बेटिया लगभग आधा पूरा कर चुकी है, आधा बाकि है, पर हा सफ़र लम्बा है। CBI कोर्ट में सजा तो मिल गयी लेकिन उस सजा और क्रियान्वयन के बीच में कई और न्याय के मंदिर मिलेंगे और जरुरी नहीं हर जगह न्याय की देवी का प्रसाद एक सामान हो। जहा तक रही माँ के तीसरे मकसद की बात, तो ये आने वाला वक़्त ही बताएगा की वो बच्चिया कितनी बड़ी हो चुकी होगी? वो अपने पिता के आदर्शो को, माँ के सपनो को किश रूप में प्रस्तुत करेंगी।
        न्याय के इश किस्से को सुनाने का मेरा मूल मकसद ये था की आप जाने एक व्यक्ति की अपने कर्मो के प्रति समर्पण, ईमानदारी के बारे में। एक माँ की त्याग और लड़ाई के बारे में। दो लडकियों के जीवन संघर्स के बारे में। और सबसे ज्यादा हमारी न्याय व्यवस्था के बारे में। आप सोच रहे होंगे कितनी अच्छी न्याय व्यवस्था है, न्याय तो मिल गया। लेकिन आइये अब आपको दिखाता हु, इशी किस्से में, इशी न्याय व्यवस्था का एक दूसरा रुख। फिर आप कहियेगा क्या यही है हमारी न्याय व्यवस्था।
        श्री K.P. सिंह जी के साथ जब घटना घटी तब तारीख थी 13 मार्च 1982 और CBI कोर्ट से जो फैसला आया उस दिन तारीख थी 5 अप्रैल 2013 । न्याय की आश में 31 साल गुजर गए। इश दौरान कई आरोपी फरियादी इश लोक से उस लोक चले गए जहा से कोई लौट कर नहीं आता, वही दूसरी तरफ उस समय के कई बच्चो के अब बच्चे जवा हो गए। कइयो के लगाये पेड़ो ने अब फल देना बंद कर दिया। पर हा देर से ही सही न्याय के मंदिर से, न्याय की देवी की कलम से, न्याय रूपी फल भी निकला। पर सवाल ये उठता है की ये फल अब है किस लायक? क्या इससे अब किसी फरियादी की भूख मिटेगी? इतने सालो बाद तो CBI कोर्ट से फैसला आया है, अब ये केस हाईकोर्ट में जायेगा, वह भी न जाने कितनो के कितने बसंत बीतेंगे। उसके बाद भी जो फल आएगा वो भी खाने लायक नहीं रहेगा, क्योकि तब वो चढ़ेगा सुप्रीम कोर्ट रूपी न्याय के मंदिर में। फिर वहा भी ये केस न जाने कितने मेजो पर मथ्था टेकेगा। और उसके पस्चात अगर सच में न्याय रूपी फल निकला तो वो कटने के लिये न जाने कितने साल तो महामहिम की चौखट पर घंटिया बजाएगा। पर मुझे कहने में संकोच नहीं हो रहा है की इश व्यवस्था से गुजरने के बाद वो फल मात्र आभाशी फल से अधिक कुछ नहीं रह जायेगा। न कोई असली आरोपी रह जायेंगे न कोई फरियादी। क्योकि निचली अदालत से फैसला आने में अगर 31 साल लग गए तो किसी को ये मानने में संकोच न होगा की अगले दो मंदिरों से गुजरने में कुल मिला कर कम से कम 31 साल और लगेंगे। और उसके बाद महामहिम के पास कम से कम 5 साल। कुल मिलाकर देखे तो एक न्याय को पाने में लग गए 67 साल। और भारत की जनता की औसत आयु है मात्र 64 साल। वैसे भी घटना के वक्त सभी आरोपी व्यस्क थे मतलब अंतिम फैसला आने तक कोई ना बचेगा। वैसे भी उनमे से अधिकतर अभी ही स्वतः मृतुलोक को जा चुके है, या फिर उनके बिच मात्र चंद कदमो का फासला रह गया है। तो हुआ न आभाशी फल।
        ये स्थिति तब है जब हमला हुआ था खुद पुलिश पर वो भी DSP रैंक के अधिकारी पर, फरियादी मौजूदा समय की PCS ऑफिसर थी और वर्त्तमान फरियादी IAS और जिले की मुखिया है।मात्र इशी से कल्पना की जा सकती है की भारत में हमारे आप जैसे आम आदमी के लिए न्याय के मंदिर से, न्याय की देवी द्वारा, न्याय पाना कितना कठिन है।
आखिर क्या कारण है की मंदिर की चौखट से अन्दर जाने के बाद बहार आने में इतना वक्त लग जाता है? इश पूरी व्यवस्था को किसने बनाया? क्यों बनाया? अगर कही कुछ कमिया है तो उसे कोइ दूर क्यों नहीं करता? खुद सोचिये। और मुझसे जानने के लिए पढ़िए इश न्याय व्यवस्था पर कुठाराघात करता मेरा अगला लेख। हो सकता है मेरे इश लेख में कुछ कमिया रह गयी हो या फिर आपका कुछ सुझाव हो तो मुझसे मिले.......
किंजल कुमार
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4 टिप्‍पणियां:

  1. Kinjal ji, Is mein koi shaq nahin ki hamen to bataaya jaata hai ki, Nyaay ki devi oonchai par kahdi hui hai jahan se sab kuch dikhta hai. Usne aankh par patti is liye baandh rakhi hai ki kisi ke vyaktitiv ka asar nyaay par na pade aur anyaay na ho jaaye. Lekin is ka doosra aur asal pahloo yah hai ki Isne jo aankh par patti bandh rakhi hai, voh kaanon (ear) ko bhi band karit hui jaati hai. Ab sirf is ko sparsh se he apni baat samjhaai ja sakti hai aur yeh itni unchaai par khadi hoti hai ki, sirf "OONCHI PAHUNCH WAALA HI is tak pahunch sakte hain. Aur agar koi Choti zaat ka ya kamzor kuch mehnat kar ke is ke paas pahunch bhi gaya to is ke kapde aise hain ki kuch bhi ilzaam laga sakati hai. Batla House Encounter bhi isi tarah ka encounter tha jis mein ek teer se do shikaar kiye gaye the.

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  2. izahar sir mai aap se kahi par to sahamat hu aur kahi par nahi.... bilkul kanoon andha hai..... aur nyay bhi hota hai par jaisa maine apne article me likh rakha hai ki vo matra aabhashi fal hi ban kar rah jata hai. jaha tak rahi us kurshi tak pahuchane vaali baat to us tak ek garib bhi pahuch sakta hai, vo mere jaisa bhi ho sakta hai. iska pratyaksh udaharan mai khud hu.. mera parivaar abb bhi bharat ke us class se aata hai jise arthsastri middle class kahte hai... aur mere sage umesh bhaiya ka chayan abhi kuch dino pahle hi nyay ki devta ke roop me hua hai. aur saath hi mere bhaiyake mitra hridesh bhaiya aur unki mitra ka bhi chayan usi nyay ki devta ke taur par hua hai..... jo ki sabhi log usi middle claas se aate hai.... jisko aap man rahe hai ki ....vo us kursi tak nahi pahuch sakta hai. jaha tak rahi batla house ki bat to dekhiye uska bhi fal kab aata hai?

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