एक पत्रिका के लिए नक्सलवाद विषय पर लिखा गया मेरा यह लेख आशा है आपको पसंद आयेगा।
नक्सलवादी हमले में छत्तीसगड़ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नंद कुमार पटेल और उनके बड़े बेटे समेत 29 लोगों की मौत ने जहाँ पूरे देश को दहला दिया वहीं यह बहस एक बार फिर छिड़ गई कि कैसे इस समस्या से निपटा जाए। सरकार और समाज दोनों इस बहस में एक साथ शरीक़ हो गए। कोई कह रहा है कि इस समस्या से निपटने के लिए वार्ता का हल ढूंढा जाए तो कोई इस बात पर बल दे रहा है कि नक्सलियों के ख़ात्मे के लिए सैन्य बलों का प्रयोग किया जाए। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यह समस्या केवल एक क्षेत्र विशेष की नहीं बल्कि अब देश के आधे से ज़्यादा भू-भाग की बन चुकी है। आधे से ज़्यादा प्रदेशों में नक्सली अपनी जड़ें जमा चुके हैं। इसके लिए यह नहीं कहा जा सकता कि सैन्य बलों के प्रयोग से समस्या को ख़त्म किया जा सकता है। योजना आयोग ने 2006 में नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए डी.बंद्योपाध्याय की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। समिति ने अप्रैल 2008 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि किस तरह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से आदिवासी, दलित समाज पीड़ित है। उनकी समस्या को हल करने के लिए नक्सली तुरंत आगे आते हैं। ऐसे में नक्सलियों को उन लोगों का समर्थन प्राप्त है जो समाज में दबे-कुचले हैं। इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ग़रीबी और शोषण का नक्सलवाद से सीधा संबंध है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि इस रिपोर्ट के किसी भी पहलू पर ख़ास ध्यान नहीं दिया गया और परिणाम यह हुआ कि नक्सलवाद लगातार बढ़ता गया। छत्तीसगढ़ में सुकुमा जिले की घटना से बहस ज़रूर शुरू हुई। सरकार की ज़ीम्मेदारी है कि इस समस्या से निपटने के लिए कोई ठोस पहल करे। केवल आरोप-प्रत्यारोप लगाने से समाधान संभव नहीं है। सरकार को सुनियोजित तरीक़े से नक्सलवाद को रोकने में जुटना होगा। विकास और सुनियोजित पुलिस कार्रवाई की रणनीति पर बल देना होगा, जिसमें विकास सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। अगर विकास की बात सरकारें पहले से ही कर रही होती तो शायद यह समस्या इतना विकराल रूप नहीं ले पाती। सरकार को भी पता है कि समस्या की जड़ कुछ न कुछ है। लेकिन उस जड़ को ख़त्म करने के लिए सरकार किस प्रकार का समाधान कर रही है वह तो सरकार ही बता सकती है। कुछ विश्लेषक मानते हैं कि देश में बढ़ते नक्सलवाद के लिए सीधे तौर पर सरकार ज़िम्मेदार है। उनके मुताबिक़ सरकार अगर यह सोचती है कि केवल सेना के बल पर इसको क़ाबू किया जा सकता है तो यह संभव नहीं है। इससे तो नक्सलवाद और हिंसक हो जाएगा। गृहमंत्री शिंदे इस समस्या से निपटने के लिए राज्य सरकारों के सहयोग की बात करते हैं। सरकारें सहयोग करें यह बात तो क़ाफ़ी हद तक ठीक है लेकिन नक्सलियों का कहर अगर सरकारें दूर कर पातीं तो शायद नक्सलवाद पनप नहीं पाता। नक्सलवाड़ी से शुरू हुआ आंदोलन आज देश भर के 150 से अधिक ज़िलों में फैल चुका है। ऐसा क्यों हुआ? आज़ादी के बाद का यह सबसे बड़ा आंदोलन समझा जा रहा है लेकिन इस आंदोलन में जो हिंसा का वीभत्स चेहरा दिख रहा है उसे दबाने के लिए सरकार क्या कर रही है उस पर विचार किए जाने की ज़रूरत है। जब भी कोई घटना होती है जाँच कमेटी बना दी जाती है या फिर एक-दूसरे पर दोषारोपण किया जाता है।उनकी राय यही है कि नक्सली समस्या से निपटने के लिए वार्ता ही एकमात्र विकल्प है। क्योंकि नक्सली यह मान चुके हैं कि अगर सरकार हथियार उठाएगी तो वे भी किसी से कम नहीं है। बीते एक दशक की घटनाएँ इस बात की गवाह हैं कि नक्सलियों से गोली से निपटना आसान नहीं है। उनकी तादात भी कम नहीं है। अगर उनको कम करके आँका गया तो मामला क़ाफ़ी गंभीर हो सकता है। ऐसे में सरकार के फ़ैसले पर सबकी निगाहें टिकी हुई हैं। नक्सलियों से वार्ता के लिए लगातार पहल की जा रही है। लेकिन इससे पहले इस बात को समझने की ज़रूरत है कि आख़िर नक्सलवाद क्यों पनपा है।
नक्सलवाद कम्युनिस्ट पार्टी के क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरुप उत्पन्न हुआ। नक्सलवाद की शुरुआत 1948 में तेलंगाना-संघर्ष के नाम से किसानों के सशस्त्र विद्रोह से हुई थी। भारत-चीन युद्ध 1962 के बाद 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी साम्यवाद की रूसी और चीनी विचारधारा और रणनीति के मतभेदों के कारण दो गुटों में विभाजित हो गई। चीनी विचारधारा वाले गुट ने माक्सस्ट कम्युनिस्ट पार्टी के नाम से नई पार्टी बनाकर अनुकूल क्रांतिकारी परिस्थिति के आने तक सशस्त्र संघर्ष को टालकर चुनाव में भाग लेना तय किया। जब उसने 1967 के चुनाव में भाग लेकर बंगाल कांग्रेस के साथ पश्चिम बंगाल में संविद सरकार बनाई तब चारू मजूमदार ने माक्सस्ट कम्युनिस्ट पार्टी पर क्रांति के साथ विश्वासघात और नवसाम्राज्यवादी, सामंती तथा पूंजीवादी व्यवस्था का दलाल होने का आरोप लगाकर माक्र्स-लेनिन-माओ की विचारधारा के आधार पर नया गुट बना लिया। इसी वर्ष दार्जिलिंग जिले के एक गांव नक्सलबाड़ी में जब एक वनवासी युवक न्यायालय के आदेश पर अपनी जमीन जोतने गया तो उस पर जमींदारों के गुंडों ने हमला कर दिया। किसानों ने कानू सान्याल और चारू मजूमदार के नेतृत्व में जमींदारों के कब्जे की जमीन छीनने का सशस्र संघर्ष छेड़ दिया। नक्सलबाड़ी गांव से शुरू होने के कारण इस संघर्ष को नक्सलवाद कहा जाने लगा। मजूमदार चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ-त्से-तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से एक थे। मजूमदार का मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं। जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और परिणामस्वरुप कृषि तंत्र पर दबदबा हो गया हैं यह सिर्फ़ सशस्त्र क्रांति से ही ख़त्म किया जा सकता है। 1967 में नक्सलवादियों ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हो गए। अलग होने के बाद उन्होंने सरकार के ख़िलाफ़ भूमिगत लड़ाई छेड़ दी। 1971 के आंतरिक विद्रोह और मजूमदार की मृत्यु के बाद इस आंदोलन की बहुत-सी शाखाएँ हो गईं और आपस में प्रतिद्वंदिता करने लगी। आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गई हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेती हैं। लेकिन बहुत से संगठन अभी भी छुपकर लड़ाई करने में लगे हुए हैं। नक्सलवाद की सबसे बड़ी मार आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल और बिहार को झेलनी पड़ रही है।
पर मेरे हिसाब से नक्सलवाद का खात्मा जमीदारों, पूंजीपतियों के हितों की रक्षा हेतु पुलिस-बल बढ़ाकर नहीं बल्कि जन-सापेक्ष विकास द्वारा जनता की ताकत बढ़ाकर ही किया जा सकता है, हिंसा तथा जवाबी प्रतिहिंसा से इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता। इसका हल बातचीत से ही संभव है।
किंजल कुमार
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किन्जल जी आप का लेख अच्छा है. हमारी टिप्पणी यह है की, "नक्सलवाद" कोई समस्या नहीं है, यह तो समस्या के बीज से उपजा फल है. अचंभे की बात यह है कि जिस नक़सलवाद को हम 12-13 साल की उमर से जानते हैं और उसके उपजने का कारण भी जानते हैं, वोह सरकारों को कैसे नहीं पता. सच तो यह है कि सरकारों को अच्छी तरह से पता है कि यह फल किस पेड़ पर उग रहा है और क्यूं उग रहा है लेकिन क्युकी सरकारों के ही कर्णधार इस की जड में हैं इस लिये सरकारें इस का उपाय करना ही नहीं चाहती. यह सारे प्रदेश, जहां नक्सलवाद है, वोह राजनीतिक सीमाओं के हिसाब से तो अलग-अलग हैं लेकिन मूल रूप से एक क्षेत्र में ही आते हैं और जिस का नाम है "छोटा नागपुर का पठारी भाग". भारत की अधिकतर खनिज संपदा इस भाग में पायी जाती है. तेंदु पतता यहाँ उगता है. इस संपदा का आपराधिक रूप से दोहन, इन्हीं सरकारों के गुर्गे कर रहे हैं आ और जो आदिवासी इन जंगलों को पालते पोसते और रक्षा करते हैं, उनके पशुओं को चरने तक का भी मौक़ा नहीं देते, पेड़ों से सूखी डंडियाँ तोड़ने नहीं देते बल्कि इसके बदले इनकी औरतों तक का शोषण करते हैं. यह गुर्गे इनका क़तल करते हैं और इल्ज़ाम भी इन्हीं पर डाल कर जेल भिजवा देते हैं. – यदि नक्सलवाद के फल को पैदा होने से रोकना है तो आधारभूत समस्या का हल ढूंढ़ना होगा. सबसे पहले आद्वासियों की इज़्ज़त और अधिकार की रक्षा करनी होगी, विकास तो वोह बात है जो अंत में काम आयेगी. एक व्यक्ति को कॅन्सर हो गया हो और उस को कहें की मसल बढाने वाला टॉनिक खाओ तो कॅन्सर ठीक होगा या बढेगा.
जवाब देंहटाएंइज़हार सर मै आपसे अधिकतर सहमत हु, पर अंतिम की कुछ बातो से इत्तेफाक नहीं रखता हु। naksalvaad ke baare me to humne bachpan se hi sun rakhkhha tha, ya yu kahu ki iski suruvat srishti ki rachna ke saath saath hui to galat nahi hoga. bado ne humesha chhoto ko dabane kuchalne ki koshish ki hai aur unpar atyachar kar, sasan kar unke adhikaro ka hanan karne ka kritya kiya hai, kabhi yah vibhats roop dharan kar leta to kabi shant, ye manav ki pravitti rahi hai. naksalvaad ko sab gali dete hai, sab kosate hai, par koi unki sachchhai nahi janana chahta ki aakhir nakasalvaad hai kya? naksalvaadi chahte kya hai? aakhir unhe naksalvaadi banane ke liye majboor kisne kiya? ha ye alag baat hai ki vo naksalvaad apne us raste se bhatak gaya hai jiske vajah se uski rachna hui thi. ab baat kare ki aakhir ye naksalvaad apni raah se bhatka kyo? to iska ek sidha sa jawab hai, ki agar raja hi chori karne lage to praja kya kare? jin naksaliyo ne pahle janta ke liye banduk uthai thi ab vo khud hi neta ban baithe hai, ye hakikat hai ki us chetro se jo vidhayak, sansad, pardhaan aadi chune jaa rahe hai vo sab pahle se naksali rah chuke hai ya fir unke parivaaro se hai. jo kaam pahle naksali aadivasiyo ke liye karte the ab vo khud ke liye karne lage hai, isiliye maine tite diya hai apno se apno kiladai. jaha tak mera manana hai adharbhut samsyae bina gyan ke nahi aa sakti hai, aur gyan aayega jagrukta se aur jagrukta ayegi vikaas se. jab tak sabme jagrukta nahi aayegi tab tak log apne hako ke liye nahi ladenge. unka fayda kabhi ye neta uthayenge, kabhi corporate, kabhi naksalvaadi se neta bane log to kabhi vyaktigat swartho ke liye khud naksalvaadi neta.
जवाब देंहटाएंनक्सलवाद के बारे में कुछ नयी जानकारीय मिली, सुक्रिया।
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