बुधवार, मई 29, 2013

अपनों से अपनों की लड़ाई: नक्सलवाद

एक पत्रिका के लिए नक्सलवाद विषय पर लिखा गया मेरा यह लेख आशा है आपको पसंद आयेगा।

नक्सलवादी हमले में छत्तीसगड़ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नंद कुमार पटेल और उनके बड़े बेटे समेत 29 लोगों की मौत ने जहाँ पूरे देश को दहला दिया वहीं यह बहस एक बार फिर छिड़ गई कि कैसे इस समस्या से निपटा जाए। सरकार और समाज दोनों इस बहस में एक साथ शरीक़ हो गए। कोई कह रहा है कि इस समस्या से निपटने के लिए वार्ता का हल ढूंढा जाए तो कोई इस बात पर बल दे रहा है कि नक्सलियों के ख़ात्मे के लिए सैन्य बलों का प्रयोग किया जाए। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यह समस्या केवल एक क्षेत्र विशेष की नहीं बल्कि अब देश के आधे से ज़्यादा भू-भाग की बन चुकी है। आधे से ज़्यादा प्रदेशों में नक्सली अपनी जड़ें जमा चुके हैं। इसके लिए यह नहीं कहा जा सकता कि सैन्य बलों के प्रयोग से समस्या को ख़त्म किया जा सकता है। योजना आयोग ने 2006 में नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए डी.बंद्योपाध्याय की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। समिति ने अप्रैल 2008 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि किस तरह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से आदिवासी, दलित समाज पीड़ित है। उनकी समस्या को हल करने के लिए नक्सली तुरंत आगे आते हैं। ऐसे में नक्सलियों को उन लोगों का समर्थन प्राप्त है जो समाज में दबे-कुचले हैं। इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ग़रीबी और शोषण का नक्सलवाद से सीधा संबंध है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि इस रिपोर्ट के किसी भी पहलू पर ख़ास ध्यान नहीं दिया गया और परिणाम यह हुआ कि नक्सलवाद लगातार बढ़ता गया। छत्‍तीसगढ़ में सुकुमा जिले की घटना से बहस ज़रूर शुरू हुई। सरकार की ज़ीम्मेदारी है कि इस समस्या से निपटने के लिए कोई ठोस पहल करे। केवल आरोप-प्रत्यारोप लगाने से समाधान संभव नहीं है। सरकार को सुनियोजित तरीक़े से नक्सलवाद को रोकने में जुटना होगा। विकास और सुनियोजित पुलिस कार्रवाई की रणनीति पर बल देना होगा, जिसमें विकास सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। अगर विकास की बात सरकारें पहले से ही कर रही होती तो शायद यह समस्या इतना विकराल रूप नहीं ले पाती। सरकार को भी पता है कि समस्या की जड़ कुछ न कुछ है। लेकिन उस जड़ को ख़त्म करने के लिए सरकार किस प्रकार का समाधान कर रही है वह तो सरकार ही बता सकती है। कुछ विश्लेषक मानते हैं कि देश में बढ़ते नक्सलवाद के लिए सीधे तौर पर सरकार ज़िम्मेदार है। उनके मुताबिक़ सरकार अगर यह सोचती है कि केवल सेना के बल पर इसको क़ाबू किया जा सकता है तो यह संभव नहीं है। इससे तो नक्सलवाद और हिंसक हो जाएगा। गृहमंत्री शिंदे इस समस्या से निपटने के लिए राज्य सरकारों के सहयोग की बात करते हैं। सरकारें सहयोग करें यह बात तो क़ाफ़ी हद तक ठीक है लेकिन नक्सलियों का कहर अगर सरकारें दूर कर पातीं तो शायद नक्सलवाद पनप नहीं पाता। नक्सलवाड़ी से शुरू हुआ आंदोलन आज देश भर के 150 से अधिक ज़िलों में फैल चुका है। ऐसा क्यों हुआ? आज़ादी के बाद का यह सबसे बड़ा आंदोलन समझा जा रहा है लेकिन इस आंदोलन में जो हिंसा का वीभत्स चेहरा दिख रहा है उसे दबाने के लिए सरकार क्या कर रही है उस पर विचार किए जाने की ज़रूरत है। जब भी कोई घटना होती है जाँच कमेटी बना दी जाती है या फिर एक-दूसरे पर दोषारोपण किया जाता है।
उनकी राय यही है कि नक्सली समस्या से निपटने के लिए वार्ता ही एकमात्र विकल्प है। क्योंकि नक्सली यह मान चुके हैं कि अगर सरकार हथियार उठाएगी तो वे भी किसी से कम नहीं है। बीते एक दशक की घटनाएँ इस बात की गवाह हैं कि नक्सलियों से गोली से निपटना आसान नहीं है। उनकी तादात भी कम नहीं है। अगर उनको कम करके आँका गया तो मामला क़ाफ़ी गंभीर हो सकता है। ऐसे में सरकार के फ़ैसले पर सबकी निगाहें टिकी हुई हैं। नक्सलियों से वार्ता के लिए लगातार पहल की जा रही है। लेकिन इससे पहले इस बात को समझने की ज़रूरत है कि आख़िर नक्सलवाद क्यों पनपा है।
नक्सलवाद कम्युनिस्ट पार्टी के क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरुप उत्पन्न हुआ। नक्सलवाद की शुरुआत 1948 में तेलंगाना-संघर्ष के नाम से किसानों के सशस्त्र विद्रोह से हुई थी। भारत-चीन युद्ध 1962 के बाद 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी साम्यवाद की रूसी और चीनी विचारधारा और रणनीति के मतभेदों के कारण दो गुटों में विभाजित हो गई। चीनी विचारधारा वाले गुट ने माक्सस्ट कम्युनिस्ट पार्टी के नाम से नई पार्टी बनाकर अनुकूल क्रांतिकारी परिस्थिति के आने तक सशस्त्र संघर्ष को टालकर चुनाव में भाग लेना तय किया। जब उसने 1967 के चुनाव में भाग लेकर बंगाल कांग्रेस के साथ पश्चिम बंगाल में संविद सरकार बनाई तब चारू मजूमदार ने माक्सस्ट कम्युनिस्ट पार्टी पर क्रांति के साथ विश्वासघात और नवसाम्राज्यवादी, सामंती तथा पूंजीवादी व्यवस्था का दलाल होने का आरोप लगाकर माक्र्स-लेनिन-माओ की विचारधारा के आधार पर नया गुट बना लिया। इसी वर्ष दार्जिलिंग जिले के एक गांव नक्सलबाड़ी में जब एक वनवासी युवक न्यायालय के आदेश पर अपनी जमीन जोतने गया तो उस पर जमींदारों के गुंडों ने हमला कर दिया। किसानों ने कानू सान्याल और चारू मजूमदार के नेतृत्व में जमींदारों के कब्जे की जमीन छीनने का सशस्र संघर्ष छेड़ दिया। नक्सलबाड़ी गांव से शुरू होने के कारण इस संघर्ष को नक्सलवाद कहा जाने लगा। मजूमदार चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ-त्से-तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से एक थे। मजूमदार का मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं। जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और परिणामस्वरुप कृषि तंत्र पर दबदबा हो गया हैं यह सिर्फ़ सशस्त्र क्रांति से ही ख़त्म किया जा सकता है। 1967 में नक्सलवादियों ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हो गए। अलग होने के बाद उन्होंने सरकार के ख़िलाफ़ भूमिगत लड़ाई छेड़ दी। 1971 के आंतरिक विद्रोह और मजूमदार की मृत्यु के बाद इस आंदोलन की बहुत-सी शाखाएँ हो गईं और आपस में प्रतिद्वंदिता करने लगी। आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गई हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेती हैं। लेकिन बहुत से संगठन अभी भी छुपकर लड़ाई करने में लगे हुए हैं। नक्सलवाद की सबसे बड़ी मार आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल और बिहार को झेलनी पड़ रही है।
पर मेरे हिसाब से नक्सलवाद का खात्मा जमीदारों, पूंजीपतियों के हितों की रक्षा हेतु पुलिस-बल बढ़ाकर नहीं बल्कि जन-सापेक्ष विकास द्वारा जनता की ताकत बढ़ाकर ही किया जा सकता है, हिंसा तथा जवाबी प्रतिहिंसा से इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता। इसका हल बातचीत से ही संभव है।

किंजल कुमार
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मंगलवार, मई 28, 2013

यात्रा नाथो के नाथ अमरनाथ की

एक हिंदी मासिक पत्रिका के यात्रा सेगमेंट के लिए लिखा गया मेरा ये लेख। आशा है आपको पसंद आयेगा......!

गर्मी का मौसम है, सूरज का पृथ्वी से प्रेम अपने चरम पर है जिसकी तपन से हम और आप झुलस रहे है, हर पल गाहे बगाहे प्रभु को याद करके कह रहे है, "कुछ तो दया करो" मन बस यही करता है चल भाग चल उन वदियॊ में जहा उसकी तपन ना पहुचे। मौसम भी है दस्तूर भी, तो मैंने सोचा क्यो ना इश बार यात्रा के जरिये आपको प्रभु से मिलाने उनके ही द्वार अमरनाथ ले चलु जहा आपके तन के साथ साथ मन को भी सुकू मिले। तो आइये चलते है बाबा भोलेनाथ की नगरी.....

अमरनाथ हिन्दुओ का एक प्रमुख शिव तीर्थ स्थल है। जो की कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर के उत्तर-पूर्व में १३५ किलोमीटर दूर समुद्रतल से १३,६०० फुट की ऊँचाई पर स्थित है। इस गुफा की लंबाई (भीतर की ओर ) १९ मीटर और चौड़ाई १६ मीटर है जबकि ऊंचाई ११ मीटर है।

इश धाम की प्रमुख विशेषता गुफा में बर्फ से प्राकृतिक शिवलिंग निर्मित होना है। आषाढ़ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षाबंधन तक पूरे सावन महीने में होने वाले पवित्र हिमलिंग दशर्न के लिए लाखो लोग यहां आते है। गुफा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है जिसमे ऊपर से बर्फ के पानी की बूँदें जगह-जगह टपकती रहती हैं। यहीं पर एक ऐसी जगह है, जिसमे टपकने वाली हिम बूँदों से लगभग दस फुट लंबा शिवलिंग बनता है। चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ इस शिवलिंग का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है।श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावश्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। आश्चर्य की बात यही है की यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है, जबिक गुफा में आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पारवती जी के वैसे ही अलग अलग हिमखंड हैं।
अमरनाथ के बारे में कई जनस्रुतिया भी प्रचलित है जैसे की इसी गुफा में माता पावर्ती को भगवान शिव ने अमरकथा सुनाई थी, जिसे सुनकर सद्योजात शुक-शिशु शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गये थे। गुफा में आज भी स्रधालुओ को कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई दे जाता है, जिन्हें स्रधालु अमर पक्षी बताते हैं। मान्यता है वे भी अमरकथा सुनकर अमर हुए हैं। कहा जाता है की जिन स्रधालुओ को कबूतरों का जोड़ा दिखाई देता है, उन्हें शिव पावर्ती अपने प्रत्यक्ष दशर्नों से निहाल करके उस प्राणी को मुक्ति प्रदान करते हैं। यह भी माना जाता है की भगवान शिव ने अर्धांगिनी पावर्ती को इस गुफा में एक ऐसी कथा सुनाई थी, जिसमे अमरनाथ की यात्रा और उसके मार्ग में आने वाले अनेक स्थलों का वर्णन था। यह कथा कालांतर में अमरकथा नाम से विख्यात हुई।
पूरे यात्रा पथ के बारे में कुछ विद्वानों का  भी मत है की भगवान शंकर जब पावर्ती को अमर कथा सुनाने ले जा रहे थे, तो उन्होंने छोटे-छोटे अनंत नागों को अनंतनाग में छोड़ा, माथे के चंदन को चंदनबाड़ी में उतारा, अन्य पिस्सुओ को पिस्सू टॉप पर और गले के शेषनाग को शेषनाग नामक स्थल पर छोड़ा था। ये तमाम स्थल अब भी अमरनाथ यात्रा में आते हैं।
अमरनाथ गुफा का सबसे पहले पता सोलहवीं शताब्दी के पूवार्ध में एक मुसलमान गडरिये को चला था। आज भी मंदिर का चौथाई चढ़ावा उस मुसलमान गडरिये के वंशजों को मिलता है। आश्चर्य की बात यह है की अमरनाथ गुफा एक नहीं है। अमरावती नदी के पथ पर आगे बढ़ते समय और भी कई छोटी-बड़ी गुफाएं दिखाई देती हैं। वे सभी बर्फ से ढकी हैं। अमरनाथ पर जाने के दो रस्ते हैं। एक पहलगाम होकर और दूसरा सोनमर्ग बटलाल से। पहलगाम और बलटाल तक आप किसी भी सवारी से पहुँचें, यहाँ से आगे जाने के लिए अपने पैरों का ही इस्तेमाल करना होगा। अशक्त या वृद्धों के लिए सवारियों का प्रबंध किया जा सकता है। पहलगाम से जानेवाले रास्ते को सरल और सुविधाजनक समझा जाता है। बलटाल से अमरनाथ गुफा की दुरी केवल १४ किलोमीटर है पर यह बहुत ही दुर्गम रास्ता है और सुरक्षा की दृष्टी से भी खतरनाक है। इशिलिये सरकार इस मार्ग को सुरक्षित नहीं मानती है और अधिकतर यात्रियों को पहलगाम के रास्ते अमरनाथ जाने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन रोमांच और जोखिम लेने का शौक रखने वाले लोग इस मार्ग से यात्रा करना पसंद करते हैं। इस मार्ग से जाने वाले लोग अपने जोखिम पर यात्रा करते है। रास्ते में किसी अनहोनी के लिए भारत सरकार जिम्मेदारी नहीं लेती है।
मै जोखिम नहीं उठाता हु और आपसे भी यही आशा करता हु, क्योकि जीवन अनमोल है, पहलगाम तक जाने के लिए जम्मू-कश्मीर पयर्टन केंद्र से सरकारी बस हमेशा उपलब्ध रहती है। पहलगाम में गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से लंगर की व्यवस्था हमेशा की जाती है। तीर्थयात्रियो की पैदल यात्रा यहीं से आरंभ होती है। पहलगाम के बाद पहला पड़ाव चंदनबाड़ी है, जो पहलगाम से आठ किलोमीटर कीदुरी पर है। पहली रात तीर्थयात्री यहीं बिताते हैं। यहाँ रात्रि निवास के लिए कैंप लगाए जाते हैं। लिद्दर नदी के किनारे-किनारे पहले चरण की यह यात्रा ज्यादा किठन नहीं है। चंदनबाड़ी से १४ किलोमीटर दूर शेषनाग में अगला पड़ाव रहता है। यह मार्ग खड़ी चढ़ाई वाला और खतरनाक भी है। यहीं पर पिस्सू घाटी के दशर्न होते हैं। फिर उसके बाद यात्री शेषनाग पहँच कर ताजादम होते हैं। यहाँ पवर्तमालाओं के बीच नीले पानी की एक खुबसूरत झील है। यह झील करीब डेढ़ किलोमीटर लम्बाई में फैली है। मान्यताओ के अनुसार शेषनाग झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दशर्न देते हैं। तीर्थयात्री यहाँ रात्रि विश्राम करते हैं और यहीं से तीसरे दिन की यात्रा शुरू करते हैं।
शेषनाग से अगला पड़ाव पंचतरणी आठ मील के फासले पर है। मार्ग में बैववैल टॉप और महागुणास दर्रे को पार करना पड़ता हैं, महागुणास चोटी से पंचतरणी तक का सारा रास्ता उतराई का है। पांच छोटी-छोटी सरिताए बहने के कारण ही इस स्थल का नाम पंचतरणी पड़ा है। यह स्थान चारों तरफ से पहाड़ों की ऊंची-ऊंची चोटियों से ढका है। ऊँचाई की वजह से ठंड भी ज्यादा होती है। ऑक्सीजन की कमी की वजह से तीर्थयात्रियो को यहाँ सुरक्षा के इंतजाम करने पड़ते हैं।
अमरनाथ की गुफा यहाँ से केवल आठ किलोमीटर दूर रह जाती हैं रस्ते में बर्फ ही बर्फ जमी रहती है। इसी दिन गुफा के नजदीक पहुँच कर पड़ाव डाल रात बिता सकते हैं और दुसरे दिन सुबह बाबा भोलेनाथ के वास स्थान अमरनाथ पहुच कर, उनके दर्शन कर, पूजा अर्चन कर पंचतरणी लौटा जा सकता है। यह यात्रा काफी कठिन है, लेकिन अमरनाथ की पवित्र गुफा में पहुचते ही सफ़र की सारी थकान पल भर में छू मंतर हो जाती है और मन को अद्भुत आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती है।
आशा है आपको मेरे द्वारा करायी गयी शब्दों की ये यात्रा पसंद आई होगी और आपके मन में भी एक बार वास्तविक यात्रा करने की हसरत जरूर जगी होगी।

सोमवार, मई 13, 2013

हिंदी में ब्लोगिंग के दस साल और मेरा ब्लॉग

क्या आपको मालूम था की हिंदी में ब्लोगिंग को दस साल हो गए और इसकी सुरुवात किस तरह हुई? नहीं ना, मुझे भी नहीं मालूम था। हिंदी ब्लोगिंग के दस साल पूरे होने पर inext ने 21 अप्रैल 2013 को एक पूरे पजे का आर्टिकल निकाला जिसमे जिन दो ब्लॉग को जगह दी गयी उसमे एक ब्लॉग मेरा भी फोटो सहित था। एक बात आप सब से भी कहूँगा, मातृभाषा का सम्मान करे।

शनिवार, मई 11, 2013

एक छोटी सी यात्रा बिठुर की

मैंने अक्सर महर्षि बाल्मीकि और उनके आश्रम के बारे में सुन और पढ़ रखा था, मन में सवाल भी आता था की क्या कभी मै वह जा पाउँगा? अभी कुछ दिनों पहले मेरा कानपूर जाना हुआ तो लगा आज मौका भी है दस्तूर भी, फिर क्या निकल पड़ा मै अपने दोस्त के साथ बिठुर के लिए। अब बिठुर क्या है? खुद पढ़िए और जानिए....
महर्षि वाल्मीकि की तपोभूमि बिठूर को प्राचीन काल में ब्रह्मावर्त नाम से जाना जाता था। यह शहर उत्तर प्रदेश के औद्योगिक शहर कानपुर से 22 किमी. दूर कन्नौज रोड़ पर स्थित है। शहरी शोर शराबे से उकता चुके लोगों को कुछ समय बिठूर में गुजारना काफी रास आता है। बिठूर में ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के अनेक पर्यटन स्थल देखे जा सकते हैं। गंगा किनार बसे इस नगर का उल्लेख प्राचीन भारत के इतिहास में मिलता है। अनेक कथाएं और किवदंतियां यहां से जुड़ी हुईं हैं। इसी स्थान पर भगवान राम ने सीता का त्याग किया था और यहीं संत वाल्मीकि ने तपस्या करने के बाद पौराणिक ग्रंथ रामायण की रचना की थी। कहा जाता है कि बिठूर में ही बालक ध्रुव ने सबसे पहले ध्यान लगाया था। 1857 के संग्राम के केन्द्र के रूप में भी बिठूर को जाना जाता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा नदी के किनार लगने वाला कार्तिक अथवा कतकी मेला पूर भारतवर्ष के लोगों का ध्यान खींचता है।
वैसे तो वहा पर देखने के लिए कई स्थल है पर जो मुख्य है आइये आपको उसके बारे में बताता हु।

वाल्मीकि आश्रम- हिन्दुओं के लिए इस पवित्र आश्रम का बहुत महत्व है। यही वह स्थान है जहां रामायण की रचना की गई थी। संत वाल्मीकि इसी आश्रम में रहते थे। राम ने जब सीता का त्याग किया तो वह भी यहीं रहने लगीं थीं। इसी आश्रम में सीता ने लव-कुश नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। यह आश्रम थोड़ी ऊंचाई पर बना है, जहां पहुंचने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं। इन सीढ़ियों को स्वर्ग जाने की सीढ़ी कहा जाता है। आश्रम से बिठूर का सुंदर दृश्य देखा जा सकता है।
ब्रह्मावर्त घाट- इसे बिठूर का सबसे पवित्रतम घाट माना जाता है। भगवान ब्रह्मा के अनुयायी गंगा नदी में स्‍नान करने बाद खडाऊ पहनकर यहां उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। कहा जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने यहां एक शिवलिंग स्थापित किया था, जिसे ब्रह्मेश्‍वर महादेव के नाम से जाना जाता है।
पाथर घाट- यह घाट लाल पत्थरों से बना है। अनोखी निर्माण कला के प्रतीक इस घाट की नींव अवध के मंत्री टिकैत राय ने डाली थी। घाट के निकट ही एक विशाल शिव मंदिर है, जहां कसौटी पत्थर से बना शिवलिंग स्थापित है।
ध्रुव टीला- ध्रुव टीला वह स्थान है, जहां बालक ध्रुव ने एक पैर पर खड़े होकर तपस्या की थी। ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उसे एक दैवीय तारे के रूप में सदैव चमकने का वरदान दिया था।
इन धार्मिक स्थानों के अलावा भी बिठूर में देखने के लिए बहुत कुछ है। यहां का राम जानकी मंदिर, लव-कुश मंदिर, हरीधाम आश्रम और नाना साहब स्मारक अन्य दर्शनीय स्थल हैं।
ये सब जानने के बाद मन में एक बार वहा जाने का विचार तो आ ही गया होगा, पर अब सवाल ये उठ रहा होगा की वहा जाये कैसे और रुके कहा? तो आइये उसको भी बताता हु।
वायु मार्ग- बिठूर का नजदीकी एयरपोर्ट कानपुर व लखनऊ है। यहाँ दिल्ली से नियमित सुविधा उपलब्ध है।
रेल मार्ग- कल्याणपुर यहां का नजदीकी रेलवे स्टेशन है। कानपुर जंक्शन यहां का निकटतम बड़ा रेलवे स्टेशन है, जो की भारत के लगभग सभी बड़े सहरो से जुड़ा हुआ है।
सड़क मार्ग- बिठूर आसपास के शहरों से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। लखनऊ, कानपुर, आगरा, कन्नौज, दिल्ली, इलाहाबाद आदि शहरों से बिठूर के लिए नियमित बस सेवा उपलब्ध है।
बिठुर एक छोटा नगर है, इसलिए वहा पर ठहरने के लिए अच्छे होटल नहीं मिलेंगे पर कानपुर यहाँ से मात्र 22 किलोमीटर की दूरी पर है। जहा पर आप अपनी सुविधा अनुसार कोई भी होटल ले सकते है।
बिठुर के भौगोलीक स्थिति की बात करे तो ये लगभग 5 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है और समुद्र तल से इसकी ऊंचाई लगभग 126 मीटर है। जबकि इस पूरे छेत्र में समानाय्तः हिंदी और अवधी बोली जाती है।
तो कब जा रहे है आप बिठुर? आशा है आपको मेरी ये यात्रा पसंद आई होगी।