शुक्रवार, जुलाई 26, 2013

ज्ञान की देवी को हमने आखिर धन्दे की देवी क्यों बना दिया है?

यूपी बोर्ड की मेरिट लिस्ट में इस साल इलाहबाद के कुकुरमुत्ता छाप स्कूलों और कोचिंगो के अधिकतर बच्चे छाये रहे। ये अलग बात है की बाद की प्रतियोगी परीक्षाओ में इन टापरो की हकीकत सामने आ ही जाएगी! कुछ दिनों पहले मेरा जिज्ञाषा वश संपादक कम दोस्त की हैसियत से उन बच्चो से मिलना हुआ। उनको और माहौल को देख कर लगा कही मै गलत बच्चो से तो नहीं मिल रहा हु? फिर मन में आया सरस्वती का वाश तो कही भी हो सकता है, आखिर कीचड़ में ही तो कमल खिलता है। सोचा क्यों न इश कमल को देखा ही जाये। न चाहते हुए भी मैंने उन बच्चो से कुछ सवाल पूछ ही लिये। पर अफ़सोस उनमे से कोई भी एक भी सवाल के सही जवाब नहीं दे सका। आखिर ऐसा क्यों? 

मैंने भी अपने आप से यही सवाल पुछा और इन अद्वितीय प्रतिभाओ को देख कर बाहर निकला तो आदतवश इसकी जड़ तक पहुचने के लिए निकल पड़ा। कुछ लोगो से पता किया तो मालूम चला की ये सब लक्ष्मी देवी और नक़ल के देवता की मेहरबानी है। कुछ और आगे बढ़ा तो GIC के अध्यापक महोदय मिल गये जिन्होंने इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए बताया की ये तो कुछ नहीं है। पिछले साल तो उस विद्यालय के प्रबन्धक की बच्ची भी up की मेरिट लिस्ट में आई थी जो की इनसे भी कही गयी गुजरी प्रतिभावान थी, ये सब यहाँ के अलावा सीधे आयोग से भी सेटिंग करके होता है। फिर बोले बढा भ्रस्ताचार है इस शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा की देवी सरस्वती को लोगो ने बेच दिया है, उनसे लोग व्यापार कराने लगे है, हमसे ये कभी न होगा,,,,,,
तभी उनके मोबाइल ने जगमगाते हुए गायत्रीमंत्र का उदघोष किया। मेरा मन खुश हुआ चलो कम से कम आना तो सफल हुआ, कुछ नहीं तो आज के दौर में एक ऐसे आदर्शवादी शिक्षक से ही मुलाकात हो गयी। तभी अध्यापक महोदय ने फ़ोन पर कहा ठीक है कल आ जाओ काम हो जायेगा लेकिन हा अब से ऐसी बाते कभी फ़ोन पर मत करना, आजकल पुलिस वाले किसी भी सरीफ का नंबर सर्विश्लान्स पर डाल देते है। फिर फ़ोन काट कर वो बताने लगे की आज कल UP TET के भाषा विषय की कॉपी हमी लोगो के द्वारा हमारे विद्यालय में ही जाची जा रही है, अगर हम उसमे किसी का परोपकार कर दे तो क्या बुरा है? बेचारो की जिन्दगी सवर जाएगी, पूरी जिंदगी हमे वो दुवाए देंगे साथ ही हमे हमारी मेहनत का कुछ फल भी मिल जायेगा............ 60,000 की तनखा में आज होता ही क्या है? उनकी बाते सुनकर मुझे लगा कही वो मुझसे भी तो ये आशा नहीं लगा बैठे है की कही से एकाद TET वाले दीनदुखियो को उनसे मिलवाऊ,,,,,,
खैर रात के दस बज चुके थे,,, घर के लिए निकल पड़ा और रास्ते में सोचने लगा की ज्ञान की देवी को हमने आखिर धन्दे की देवी क्यों बना दिया है? ऐसी शिक्षा का क्या मतलब जो हमे लोगो से नजर चुराने पर विवश कर दे? मास्टर जी के आदर्श आखिर केवल दूसरो के लिए ही क्यों? ऐसे बच्चो का आखिर भविष्य क्या होगा? क्या सच में 60,000 में कुछ नहीं होता? और न जाने क्या क्या।
..........तभी गाड़ी के सामने एक पिल्लै का बच्चा आ गया और मै सड़क पर।,,,,, दुखतो बहुत हुआ पर पिल्लै से ज्यादा अपने सड़क पर आने का,,,,,,,,,!
(फोटो के कुछ अंश को जानबूझकर मैंने ब्लर किया है)

Kinjal Kumar

गुरुवार, जुलाई 11, 2013

उत्तराखंड में तबाही की सच्चाई


हफ्तों से ऊपर हो गया। दिल-ओ-दिमाग पर हिमालय की बाढ़ के दृश्य छाए हुए हैं। खुली आंखों से जो टीवी पर दिख रहा है, आंख बंद करते ही कल्पना में भी वही बर्बादी के मंजर हैं। और बर्बादी का अंदाजा तक सही से नहीं लग पा रहा है। जो इलाके प्रभावित हुए हैं उन तक पहुंचा भी नहीं जा रहा है। इसलिए जैसे-जैसे बाढ़ का पानी उतर रहा है, बर्बादी के अंदाजे और बड़े, और भयावह होते जा रहे हैं।
बर्बादी के जितने भी अंदाजे लगाए जा रहे हैं, उनमें एक बात विशिष्ट है। मरने वालों की तादाद। शुरुआत 200 लोगों की मौत से हुई थी। फिर उत्तराखंड के सीएम ने कहा कि एक हजार लोग मरे हैं। फिर राज्य के आपदा प्रबंधन मंत्री ने कहा कि मरने वालों की तादाद 5000 तक पहुंच सकती है। अब अंदाजे लगाने का तो ऐसा है कि जिसका जो जी करे उतनी संख्या बता दे। समस्या यह है कि सभी अंधेरे में तीर चला रहे हैं क्योंकि सचाई यह है कि हमें कभी पता नहीं चलेगा कि असल में कितने लोग मारे गए। ऐसी डरावनी बात कहने के पीछे मेरा आधार हिमालय का दुर्गम इलाका है। कई कस्बे तो पूरे के पूरे गाद के नीचे कई-कई फुट तक दब गए हैं। उनमें कितने लोग मारे गए होंगे, इसका कभी पता नहीं चल पाएगा। जो लोग बह गए हैं, हो सकता है वे आगे जाकर धारा में कहीं मिल जाएं। लेकिन बहुत संभव है कि बहुत सारे लोग ऐसे इलाकों से लापता हुए होंगे जहां तक पहुंचा ही नहीं जा सकता। वे अब कभी नहीं मिलेंगे। जो कस्बे कई फुट गाद के नीचे दबे हैं, उन तक पहुंचना भी असंभव है। अब अगर कोई निर्माण होगा भी तो उसके ऊपर ही होगा। यानी कभी पता नहीं चलेगा कि नीचे कौन था, क्या था। बहुत सारे लोगों को लगेगा कि मैं कैसी बातें कर रहा हूं। दुखद है, कड़वी है, बहुत उदास करने वाली है, पर यही सचाई है।

अब हमारी कोशिश होनी चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा प्रभावित लोगों तक पहुंच सकें। स्थानीय लोगों के अलावा वहां टूरिस्ट और श्रद्धालु भी हैं। चार धाम यात्रा चल रही थी इसलिए श्रद्धालुओं की संख्या बहुत ज्यादा है। और गर्मी होने की वजह से पहाड़ों पर इस वक्त टूरिस्ट भी ज्यादा होते हैं। इनमें से लोकल लोगों की संख्या का तो पता लगाया जा सकता है क्योंकि सरकार के पास जनगणना का डेटा होगा। लेकिन टूरिस्ट और श्रद्धालुओं की सही-सही संख्या का पता कैसे लगेगा? धाम यात्राओं में एंट्री भले ही रेग्युलेटेड हो, लेकिन यह रेग्युलेशन सिर्फ एंट्री पॉइंट पर होता है। लेकिन उन लोगों की संख्या भी तो हजारों में होती है जो धाम तक पहुंच जाते हैं और फिर अपनी बारी का इंतजार करते हैं। इसी तरह टूरिस्टों की संख्या का भी बस अनुमान ही लगाया जा सकता है। हालांकि सरकार में टूरिस्टों की संख्या को लेकर भी बहसबाजी हो रही है, लेकिन कितने लोग आपदा का शिकार हुए और कितने लौट पाए, इसका बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है। जहां तक बचाव कार्यों का सवाल है तो यह सोचकर भी मन कांप उठता है कि ऐसे ऑपरेशन में आर्मी और पैरा मिलिट्री के जवान काम न करते तो क्या होता। हमारे पास राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अथॉरिटी है। राज्य सरकार का भी आपदा नियंत्रण विभाग है। लेकिन जब काम करने का मौका आता है ये किसी काम के नहीं रहते। इनमें रीढ़हीन रिटायर्ड बाबू भरे हुए हैं जो सरकरी घर, गाड़ियों और ऐसी सुविधाओं की खातिर अपने सरकारी आकाओं के सामने मिमियाने लगते हैं। और जब जरूरत पड़ती है तो या तो ये लोग गायब होते हैं, या फिर इन्हें पता ही नहीं होता कि क्या करना है और कैसे करना है। इस बार भी कहीं थोड़ी-बहुत कार्रवाई होगी, कई वादे किए जाएंगे। लेकिन कुछ वक्त बाद सब जस का तस हो जाएगा। रिटायरमेंट के बाद पोस्टिंग्स ऐसे ही अंधे की रेवड़ियों की तरह बंटती रहेंगी।
हमेशा सेनाएं ही काम आती हैं। फिर लोगों का यह सोचना कहां गलत है कि जब देश को जरूरत पड़ती है तो सेना के जवान ही हैं जो अपनी जान पर खेलकर भी काम आते हैं। और जब सेनाओं की तारीफ हो रही है, तब कुछ शब्द ऐसी संस्थाओं के लिए भी लिखे जाने चाहिए जिन्हें मीडिया, खासकर अंग्रेजी मीडिया सिर्फ कोसता है। जैसे आरएसएस और बाबा रामदेव के स्वयंसेवक। प्रभावित इलाकों में सबसे पहले ये स्वयंसेवक ही पहुंचे थे। बहुत से लोगों की जान इन्हीं स्वयंसेवकों की कोशिशों, उनकी फर्स्ट एड और उनके लाए खाने की वजह से बची।
किंजल कुमार

उत्तराखंड में शिव का तांडव

    उत्तराखंड जब यूपी का अंग था तब भी इसे 'देवभूमि' के रूप में ख्याति प्राप्त थी। अब एक स्वतंत्र राज्य के रूप में इसकी दैवी संपदा का आकर्षण अगर ज्यादा बढ़ा नहीं तो कम भी नहीं हुआ है। इस राज्य के कुल 13 जिलों में सभी किसी न किसी धार्मिक देवी-देवता के मंदिरों, विग्रहों या ऐतिहासिक-पौराणिक संदभों में जुड़े हैं। अप्रैल से जून और फिर सितंबर-अक्टूबर तक पर्यटन के 'महासीजन' में इन स्थलों की रौनक लौट आती है लेकिन समय बीतने के साथ यह रौनक भी सिर्फ भीड़ के जुटाव तक सीमित होती जा रही है। मई में राज्य के दो प्रमुख मंदिरों बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के कपाट खुलने के बाद उमड़ती भीड़ में अब पिछले कुछ सालों से भक्तों, धर्म प्रेमियों से कहीं ज्यादा सैलानियों और मनोरंजन करने वालों की भीड़ उमड़ने लगी।
प्रकृति की इस विनाशलीला से पहले जब हम बदरी-केदार यात्रा पर निकलते थे तो हमारे पुरनियों बताते है कि इस यात्रा पर जाने से पहले हमें अपना-अपना श्राद्ध संपन्न कर लेना पङता था । ऐसी परंपरा के पीछे उद्देश्य यही रहा होगा कि इन तीर्थों से वापसी निश्चित नहीं थी। पूरी बदरी, केदार, गंगोत्री, यमुनोत्री की चार धाम यात्रा सिर्फ भगवान भरोसे ही चलती रही है। घुमावदार चढ़ाई और ढलानों वाली सड़कों, सैकड़ों पुलों से होकर गुजरते यात्री और वाहनों की सुरक्षा का कोई खास प्रबंध नहीं है। कोई लेखा-जोखा नहीं है। सामान्य दिनों में भी लगभग पौने दो हजार किलोमीटर की दुर्गम पहाड़ी यात्रा कि सैकड़ों स्थितियां अब सामने हैं।

मिट्टी के पहाड़ों के बीच से गुजरती छोटी मोटर गाडि़यों को सड़क और हजारों फीट गहरी खाई के बीच सिर्फ पांच-छ: इंच के सड़क के किनारों से होकर गुजरना पड़ता है। कुछ पुल बन रहे हैं, कुछ की मरम्मत हो रही है पर गंदगी और निर्माण के मलबे का चारो ओर साम्राज्य है। भारत के पूर्व सवेर्यर जनरल ऑफ इंडिया और काशी विद्यापीठ के वर्तमान कुलपति डॉ. पृथ्वीश नाग बताते हैं कि भारत में चार धाम यात्रा के दो सर्किट हैं। पहला देशव्यापी (द्वारिका, बदरीनाथ, जगन्नाथ, रामेश्वर) और दूसरा उत्तराखंड तक सीमित है। बदरीनाथ दोनों में साझा है। सांस्कृतिक, धामिर्क तथा भौगोलिक दृष्टि से गुप्तकाशी के काशी विश्वनाथ मंदिर, गौरीकुंड, हरिद्वार, हृषिकेश, जागेश्वर, गोपेश्वर आदि भी महत्वपूर्ण हैं। धार्मिक-सांस्कृतिक क्षेत्र सीमा उत्तर में केदारनाथ से दक्षिण में वाराणसी तक विस्तृत है, जिसके प्रमुख देव शिव हैं। यह अद्वितीय सामंजस्य है। क्षेत्र में कहीं भी कुछ होता है तो पूरा क्षेत्र प्रभावित होता है।
डॉ. नाग की यह धर्म-परंपरा आधारित व्याख्या पर भी गौर करें- 'ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान शिव उत्तराखंड या पूरे भारत देश में हो रहे कथित विकास से प्रसन्न नहीं हैं। यह घटना कहीं आगे आने वाली किसी बड़ी विपदा या विभीषिका का संकेत तो नहीं है? हमारे लिए यह संपूर्ण एवं समग्र आत्मनिरीक्षण का अवसर है। कहीं यह भगवान शिव के 'तांडव' की शुरूआत तो नहीं?' बाजार बनते पहाड़ों की पीड़ा अलग है। सैरगाह में बदलते बदरी-केदार क्षेत्र में हहराती वेगवती नदियों अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी की धाराओं से पहाड़ों की शांति टूटती है परंतु पर्यटन के दिनों में यह पर्वतीय शांति हजारों-हजार वाहनों द्वारा पहाड़ों को रौंद डालने से भयावह लगने लगती है। केदारनाथ की चढ़ाई शुरू होने के स्थल गौरीकुंड पर दो-दो दिनों तक चलने वाला जाम, 'फाटा' हेलीपैड के पास जाम और सड़कों की दुर्दशा सभी इस देवभूमि की उपेक्षा की गवाह हैं।
हाल ही में इलाहाबाद के महाकुंभ में 10 करोड़ लोगों के लिए की गई व्यवस्था से भी कोई सीख नहीं ली गई। शिवालिक क्षेत्र के लिए सीजन में भी विशेष ट्रेन चलाने की किसी को सुध नहीं है। हादसे के बाद ट्रेनें चलाने की घोषणा जरूर की गई है। केदारनाथ की प्राकृतिक आपदा के कारणों के बारे में पूरा राष्ट्र चिंतित है। ग्लेशियर टूट पड़ा, बादल फटा या कोई बांध टूटा- ऐसी अनेक अटकलें या अफवाहें हैं। देश को जल्दी यह मालूम होना चाहिए कि इस दुघर्टना के असली कारण क्या हैं। केदारनाथ मंदिर और चार धाम यात्रा को एक वर्ष या तीन वर्ष के लिए बंद कर देना कोई हल नहीं है। इस क्षेत्र के लिए दूरगामी ठोस योजनाएं बनाकर दुर्गम चार धाम यात्रा का मार्ग सुगम बनाने के लिए वैष्णो देवी के 14 किलोमीटर पहाड़ी मार्ग को सुधारने के ऐतिहासिक प्रयास को मॉडल के रूप में लिया जा सकता है।
      पूरे उत्तराखंड में एक खास कानून की अनदेखी की गई है। इस कानून के अनुसार 5000 फीट से अधिक ऊंचाई वाले वनक्षेत्रों के वृक्ष कतई काटे नहीं जाने चाहिए, पर वृक्ष कटते रहे हैं। सुंदरलाल बहुगुणा और चंडीप्रसाद भट्ट जैसे पर्यावरण-समर्पित व्यक्तित्वों का अशक्त होना खलता है। हजारों साल पुराने मंदिर और आस्था के केंद्रों की यह देवभूमि पहली बार इतनी भीषण प्राकृतिक आपदा से क्षत-विक्षत है। इस क्षेत्र में पुनर्वास का काम बहुत कठिन है और इसमें बड़ी बाधा साधनों के अभाव की है। अभी तो सीमा सड़क संगठन और भारतीय सेना को इस आपदा में सराहनीय राहत कामो के लिए बधाई देनी चाहिए, लेकिन इस क्षेत्र के प्राथमिकता पर आधारित विकास और संरक्षण के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति और संसाधनों का जो टोटा दिखाई पड़ रहा है, उसके संकेत अच्छे नहीं हैं। 
 किंजल कुमार

मंगलवार, जून 04, 2013

कहा से? कहा को जा रहे है?

पर्यावरण दिवस के अवसर पर एक पत्रिका में प्रकाशित होने वाले हमारी NGO चिरागन के रेगुलर कॉलम के लिए लिखा गया मेरा लेख। जिसमे मैंने भारतीय संस्कृति में पर्यावरण के सम्बन्ध को वर्त्तमान की परिस्थिति से जोड़ कर उत्पन्न होने वाली समस्याओ को दिखाने की एक कोशिस की है

अगर हम ये कहे तो गलत नहीं होगा की मानव अपने आप में पर्यावरण से इतर कोई अलग इकाई नहीं है। वह पर्यावरण के प्राकृतिक घटक का ही एक अंग है और उसका अस्तित्व प्रकृति पर ही टिका हुआ है। हमारे प्राचीन ऋषि मुनि इस तथ्य से भली-भाँति परिचित थे कि "जड़ जगत" यानी भूमि, जल, पहाड़, वायु, वनस्पतियों, वन्यजीव, नदी-नाले एवं "चेतन जगत" यानी मनुष्य के पारस्परिक समानुपातिक सामंजस्य से ही पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी तन्त्र में संतुलन कायम रहता है। पारिस्थितिकी तन्त्र के किसी घटक के नष्ट होने से उसका दुष्परिणाम सम्पूर्ण पर्यावरण को भोगना पड़ता है।
ॠग्वेद, उपनिषद और जातक कथाओं से लेकर पुराणों तक में भारतीय संस्कृति की प्रकृति संरक्षण सम्बन्धी चिरन्तन धारा विद्यमान रही है। भारतीय ऋषि मुनियो ने प्राकृतिक शक्तियों को देवी-देवताओ का स्वरूप माना। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि वगैरह देव माने गए तो नदियाँ पवित्र देवियाँ और पृथ्वी को माँ। वृक्ष देवों के वास-स्थल बने तो वही कुएँ, तालाब और बावड़ियों के धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व भी उभरे। पशु-पक्षियों को देवताओं का वाहन बनाकर इन्हें श्रेष्ठता प्रदान की गयी तो गाय-बैल भारतीय लोकजीवन में कितने समाहित हुए, इससे शायद ही कोई अनजान हो।
मगर समय का चक्र बहुत कुछ बदल देता है। उन्नीसवीं सदी में हुई औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् मानव की लालसा को पंख लग गए। उपभोक्तावादी जीवन-मूल्यों का विकास होने लगा। भारतीय भी इस जीवन-पद्धति के प्रवाह से अपने को बचा नहीं सके। फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का बेलगाम सिलसिला शुरू हो गया। इस सन्दर्भ में जो भी पारम्परिक अनुशासन और मर्यादाएं थीं, सब ताक पर रख दी गई। परिणामत: आज समस्त विश्व पर्यावरण प्रदूषण और पारिस्थितिकी असंतुलन की भयावह समस्या से आक्रांत है। अभी न हमारी नदियों का जल शुद्ध रह गया है और न वायुमण्डल। भूगर्भीय जल भी अर्सेनिक और फ्लूराइड जैसे तत्वों से जहरीला होने लगा है। यहाँ तक कि अन्तरिक्ष में भी प्रदूषण के कदम पड़ चुके हैं और यह सब हो रहा है- विकास के नाम पर। पुराने समय में पर्यावरण को लेकर कैसी सोच थी, इसे समझने में ‘मत्स्यपुराण'  का यह कथन दृष्टव्य है-
‘‘दशकूप समावापी, दशवापी समोहृद:।
दश हृद सम: पुत्रो, दश पुत्र समोवृक्ष:।।"
इसमें बताया गया है कि दस कुओं के समतुल्य एक बावड़ी है। दस बावडियों के बराबर एक तालाब है। दस तालाबों के सदृश्य एक पुत्र है और दस पुत्रों के समान एक वृक्ष होता है। सोचिये कभी इतना समाहित था लोकजीवन में वृक्ष! जरूरत होने पर भी लोग हरे वृक्ष को नहीं काटते थे। यह जनश्रुति मिलती है कि राजस्थान में खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा में माहेश्वरी समुदाय के लोगों ने प्राण तक न्योछावर कर दिए थे। मगर बीसवीं सदी के आठवें दशक तक आते-आते पैसे की लिप्सा ऐसी बलवती हुई कि आम, महुआ, जामुन जैसे फलदार वृक्ष बेचे-काटे जाने लगे। सघन छांव वाले गांव बंजर उजाड़ होते गए।
ऊर्जा, ईंधन और इमारती लकड़ी के लिए पिछले सौ साल से जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला जारी है। एक समय तो ऐसा आ गया था, जब लगने लगा था कि अब पहाड़ सदैव के लिए नंगे-बूचे हो जायेंगे। किन्तु सुन्दरलाल बहुगुणा के ‘चिपको आन्दोलन' का इस दिशा में सकारात्मक परिणाम आया। इससे पर्वतीय क्षेत्रों में अनियन्त्रित कटान पर तो रोक लगी ही, वृक्षारोपण को प्राणवायु भी मिल गई। वृक्ष सिर्फ कार्बन डाई आक्साइड का अवशोषण करके आक्सीजन का उत्सर्जन ही नहीं करते, बल्कि मृदा संरक्षण और परिवर्धन का गुरुतर दायित्व भी निभाते हैं।
जहाँ जंगल कटते हैं, उस क्षेत्र में अपक्षयन की क्रिया आरम्भ हो जाती है। बरसात के समय वहाँ की मृदा को प्राकृतिक संरक्षण नहीं मिल पाता। फलस्वरूप भूक्षरण में वृद्धि होने लगती है। कुछ वर्षों में उस क्षेत्र की मृदा का पूर्णतया सफाया हो जाता है और अन्दरूनी सिल्ट सतह पर आ टिकती है। ऐसी स्थिति में वह इलाका बंजर में परिवर्तित होने लगता है। मृदा के अभाव में वर्षा का पानी पृथ्वी में अवशोषित होने के बजाय सीधे स्थानीय नदी-नाले में मात्र कुछ घंटों में समा जाता है। इसके तीव्र बहाव में आस-पास के कृषि भूमि की मृदा भी कटने लगती है। पृथ्वी के दो-तीन इंच के ऊपरी भाग में एंथ्रोपोड्स, प्रोटोजोआ, कवक, गोलक्रिमियाँ आदि रहती हैं। मृदा व ह्यूमस के निर्माण तथा मिट्टी की उर्वरकता की संरक्षा में इनका अहम् स्थान है। कटान के साथ यह पूरा सूक्ष्म तन्त्र भी अपक्षयन की भेंट चढ़ जाता है। भूमि की उर्वराशक्ति की कमी से कृषि घाटे का सौदा बन जाती है। लिहाजा कृषि से जुड़ें व्यक्ति रोजी की तलाश में शहरों की तरफ भागते हैं। इससे शहरों में स्वच्छता, शुद्ध पेय जलापूर्ति और मलिन बस्तियों में वृद्धि की समसया पैदा होती है जो अन्तत: शहरों की प्रदूषणकारी स्थितियों को और जटिल बनाती हैं।
पृथ्वी की सतह की सिल्ट वर्षा के पानी के साथ बहकर नदी-नालों के पेंदे में पहुँच जाती है। जिसके कारण मृदा और बालू से नदियों-नालों के प्रवाह क्षेत्र की चौड़ाई और गहराई संकुचित हो जाती है। फलत: उनके प्रवाह क्षेत्र के लोगों को बाढ़-बूड़ा का प्रकोप झेलना पड़ता है। घाघरा, राप्ति, कोसी, बूढ़ी गंडक, दमोदर, यमुना आदि नदियों में प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ के पीछे इनके प्रवाह क्षेत्र के आसपास के वनों का विनाश भी मूल कारण है। वनों पर मानव अतिक्रमण का परिणाम है-  वन्य जीवों का गाँवों के आस-पास विचरण! हाथी, हिरन, बाघ, तेन्दुआ, लकड़बग्घा जैसे जंगली जानवर कृषि और रिहाइशी क्षेत्र में आकर जान-माल के लिए खतरा बनते हैं। कई ऐसे भी वन्य जीव हैं, जो अपने प्राकृतिक वास के छिनने के बाद संसार से लुप्त होते जा रहे हैं। गिद्ध, कठफोडवा जैसे जाने-पहचाने पक्षी ऐसे ही संकटग्रस्त स्थिति से गुजर रहे हैं। अति दोहन के फलस्वरूप कई औषधीय महत्व की वनस्पतियाँ जो पहले खूब दिखती थीं, अब खोजने पर भी नहीं मिलतीं। यह पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन का मामला है, जिसके प्रदूषण सम्बन्धी दूरगामी दुष्परिणाम सामने आते हैं।
सन् 2011 की ‘भारतीय वन आख्या' के अनुसार, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 23.81 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है। जबकि पचास साल पहले देश का 40 प्रतिशत भूभाग वनों से आच्छादित था।
अब कुओं, बावड़ियों का अस्तित्व मिटता जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश को धता बताते हुए तालाब निरन्तर पाटे जा रहे हैं। जल भण्डारण के इन पारम्परिक संसाधनों के नष्ट होने का नतीजा है कि भूगर्भीय जल स्तर निरन्तर नीचे भाग रहा है।
वायु जो हमारे जीवन का आधार है, लगातार विषैली होती जा रही है। बढ़ते औद्योगीकरण और स्वचालित वाहनों से निकलने वाला धुँआ वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण है। धुएं में मुख्य तौर पर कार्बन डाई आक्साइड, वैजोपाइरीन, कार्बन मोनोआक्साइड, सल्फर ट्राई आक्साइड, अधजले पेट्रोल का वाष्प, गंधक के आक्साइड, अधजले हाइड्रोकार्बन, नाइट्रोजन के विभिन्न आक्साइड, राख आदि हैं। यह मानव स्वास्थ्य से लेकर ओजोन छतरी को भी क्षतिग्रस्त कर रहे हैं।
मौसम विज्ञानियों के अनुसार, वायुमण्डल में घुले और तैरते प्रदूषक पृथ्वी के मौसम चक्र और गर्मी-सर्दी को प्रभावित कर रहे हैं। एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि वायु के अन्दर धुएँ का सघन प्रदूषण, पी०एम०-10 नाम के काले जहर के रूप में परिणत हो रहा है। यह सांस के जरिये फेफड़े में जाता है और हृदयाघात व कैंसर जैसी बीमारियों का कारण बनने लगा है। देश की नदियों का हाल और खराब है। नदियाँ अपने तटवर्ती नगरों का मलिन जल तो ढोती ही हैं, यहाँ स्थित चमड़ा, रसायन, कागज, चीनी, इस्पात संयंत्र, उर्वरक, खाद्य प्रसंस्करण, रंगाई-छपाई आदि उद्योगों का अपशिष्ट जल भी इसमें गिराया जाता है। योजना आयोग की स्वीकृति है कि ‘उत्तर की डल झील' से लेकर दक्षिण की पेरियार और चालियार नदियों तक, पूरब में दामोदर तथा हुगली से लेकर पश्चिम की ढाणा नदी तक जल प्रदूषण की स्थिति भयावह है।' नदी जल का तापमान, क्षारीयता, कठोरता, क्लोराइड की मात्रा, पी.एच.मान., बी.ओ.डी. आदि में लगातार असंतुलन पैदा हो रहा है। अब यह न्यूनतम स्तर से बहुत आगे और जटिल हो चुका है। हुगली, दमोदर, चम्बल, तुंगभद्रा, वरुणा, सोन, कावेरी, हिंडन, गोमती, सई, तमसा जैसी कई नदियों में मत्स्य प्रजातियाँ, जलीय जीव और शैवाल सदैव के लिए समाप्त होते जा रहे हैं। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, इनमें कई नदियाँ मौत की दिशा में बढ़ रही हैं।
जलवायु परिवर्तन 21वीं सदी की सबसे जटिल चुनौतियों में से एक है। इसके प्रभाव से कोई देश अछूता नहीं है। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों से कोई देश अकेले नहीं निपट सकता। जलवायु परिवर्तन का विकास, आपदा और निर्धनता से निकट का संबंध है।
हमारे पर्यावरण का ये संकट हमे सोचने पर मजबूर कर रहा है की विकाश की अंधी भागम भाग में हम अपने अस्तित्व को कहा खोते जा रहे है? हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए किस सौगात की रचना कर रहे है? सन् 1992 में रियो-डि-जानिरो में सम्पन्न ‘पृथ्वी शिखर सम्मेलन' मे पर्यावरण के संरक्षण, संवद्र्धन और संपोषण के मुद्दे को जन सामान्य के बीच जिस प्रकार की चर्चा और स्वीकृति मिली थी, वह शुभ लक्षण थे। वास्तव में पर्यावरण संरक्षा के कितने भी कानून बनाए जाएं, कैसी भी कल्याणकारी योजनाओं की उद्घोषणा हो, जन सामान्य की प्रतिबद्धता के अभाव में वह अर्थहीन ही रहेगी। किन्तु आज की तारीख में नई विश्व व्यवस्था के निर्माण और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पर्यावरण के सवाल को जैसा महत्व मिल रहा है, वह आने वाली उम्मीदों भरी नई सुबह का आगाज दिखाती है।
किंजल कुमार

बुधवार, मई 29, 2013

अपनों से अपनों की लड़ाई: नक्सलवाद

एक पत्रिका के लिए नक्सलवाद विषय पर लिखा गया मेरा यह लेख आशा है आपको पसंद आयेगा।

नक्सलवादी हमले में छत्तीसगड़ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नंद कुमार पटेल और उनके बड़े बेटे समेत 29 लोगों की मौत ने जहाँ पूरे देश को दहला दिया वहीं यह बहस एक बार फिर छिड़ गई कि कैसे इस समस्या से निपटा जाए। सरकार और समाज दोनों इस बहस में एक साथ शरीक़ हो गए। कोई कह रहा है कि इस समस्या से निपटने के लिए वार्ता का हल ढूंढा जाए तो कोई इस बात पर बल दे रहा है कि नक्सलियों के ख़ात्मे के लिए सैन्य बलों का प्रयोग किया जाए। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि यह समस्या केवल एक क्षेत्र विशेष की नहीं बल्कि अब देश के आधे से ज़्यादा भू-भाग की बन चुकी है। आधे से ज़्यादा प्रदेशों में नक्सली अपनी जड़ें जमा चुके हैं। इसके लिए यह नहीं कहा जा सकता कि सैन्य बलों के प्रयोग से समस्या को ख़त्म किया जा सकता है। योजना आयोग ने 2006 में नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए डी.बंद्योपाध्याय की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। समिति ने अप्रैल 2008 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि किस तरह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से आदिवासी, दलित समाज पीड़ित है। उनकी समस्या को हल करने के लिए नक्सली तुरंत आगे आते हैं। ऐसे में नक्सलियों को उन लोगों का समर्थन प्राप्त है जो समाज में दबे-कुचले हैं। इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ग़रीबी और शोषण का नक्सलवाद से सीधा संबंध है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि इस रिपोर्ट के किसी भी पहलू पर ख़ास ध्यान नहीं दिया गया और परिणाम यह हुआ कि नक्सलवाद लगातार बढ़ता गया। छत्‍तीसगढ़ में सुकुमा जिले की घटना से बहस ज़रूर शुरू हुई। सरकार की ज़ीम्मेदारी है कि इस समस्या से निपटने के लिए कोई ठोस पहल करे। केवल आरोप-प्रत्यारोप लगाने से समाधान संभव नहीं है। सरकार को सुनियोजित तरीक़े से नक्सलवाद को रोकने में जुटना होगा। विकास और सुनियोजित पुलिस कार्रवाई की रणनीति पर बल देना होगा, जिसमें विकास सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। अगर विकास की बात सरकारें पहले से ही कर रही होती तो शायद यह समस्या इतना विकराल रूप नहीं ले पाती। सरकार को भी पता है कि समस्या की जड़ कुछ न कुछ है। लेकिन उस जड़ को ख़त्म करने के लिए सरकार किस प्रकार का समाधान कर रही है वह तो सरकार ही बता सकती है। कुछ विश्लेषक मानते हैं कि देश में बढ़ते नक्सलवाद के लिए सीधे तौर पर सरकार ज़िम्मेदार है। उनके मुताबिक़ सरकार अगर यह सोचती है कि केवल सेना के बल पर इसको क़ाबू किया जा सकता है तो यह संभव नहीं है। इससे तो नक्सलवाद और हिंसक हो जाएगा। गृहमंत्री शिंदे इस समस्या से निपटने के लिए राज्य सरकारों के सहयोग की बात करते हैं। सरकारें सहयोग करें यह बात तो क़ाफ़ी हद तक ठीक है लेकिन नक्सलियों का कहर अगर सरकारें दूर कर पातीं तो शायद नक्सलवाद पनप नहीं पाता। नक्सलवाड़ी से शुरू हुआ आंदोलन आज देश भर के 150 से अधिक ज़िलों में फैल चुका है। ऐसा क्यों हुआ? आज़ादी के बाद का यह सबसे बड़ा आंदोलन समझा जा रहा है लेकिन इस आंदोलन में जो हिंसा का वीभत्स चेहरा दिख रहा है उसे दबाने के लिए सरकार क्या कर रही है उस पर विचार किए जाने की ज़रूरत है। जब भी कोई घटना होती है जाँच कमेटी बना दी जाती है या फिर एक-दूसरे पर दोषारोपण किया जाता है।
उनकी राय यही है कि नक्सली समस्या से निपटने के लिए वार्ता ही एकमात्र विकल्प है। क्योंकि नक्सली यह मान चुके हैं कि अगर सरकार हथियार उठाएगी तो वे भी किसी से कम नहीं है। बीते एक दशक की घटनाएँ इस बात की गवाह हैं कि नक्सलियों से गोली से निपटना आसान नहीं है। उनकी तादात भी कम नहीं है। अगर उनको कम करके आँका गया तो मामला क़ाफ़ी गंभीर हो सकता है। ऐसे में सरकार के फ़ैसले पर सबकी निगाहें टिकी हुई हैं। नक्सलियों से वार्ता के लिए लगातार पहल की जा रही है। लेकिन इससे पहले इस बात को समझने की ज़रूरत है कि आख़िर नक्सलवाद क्यों पनपा है।
नक्सलवाद कम्युनिस्ट पार्टी के क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरुप उत्पन्न हुआ। नक्सलवाद की शुरुआत 1948 में तेलंगाना-संघर्ष के नाम से किसानों के सशस्त्र विद्रोह से हुई थी। भारत-चीन युद्ध 1962 के बाद 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी साम्यवाद की रूसी और चीनी विचारधारा और रणनीति के मतभेदों के कारण दो गुटों में विभाजित हो गई। चीनी विचारधारा वाले गुट ने माक्सस्ट कम्युनिस्ट पार्टी के नाम से नई पार्टी बनाकर अनुकूल क्रांतिकारी परिस्थिति के आने तक सशस्त्र संघर्ष को टालकर चुनाव में भाग लेना तय किया। जब उसने 1967 के चुनाव में भाग लेकर बंगाल कांग्रेस के साथ पश्चिम बंगाल में संविद सरकार बनाई तब चारू मजूमदार ने माक्सस्ट कम्युनिस्ट पार्टी पर क्रांति के साथ विश्वासघात और नवसाम्राज्यवादी, सामंती तथा पूंजीवादी व्यवस्था का दलाल होने का आरोप लगाकर माक्र्स-लेनिन-माओ की विचारधारा के आधार पर नया गुट बना लिया। इसी वर्ष दार्जिलिंग जिले के एक गांव नक्सलबाड़ी में जब एक वनवासी युवक न्यायालय के आदेश पर अपनी जमीन जोतने गया तो उस पर जमींदारों के गुंडों ने हमला कर दिया। किसानों ने कानू सान्याल और चारू मजूमदार के नेतृत्व में जमींदारों के कब्जे की जमीन छीनने का सशस्र संघर्ष छेड़ दिया। नक्सलबाड़ी गांव से शुरू होने के कारण इस संघर्ष को नक्सलवाद कहा जाने लगा। मजूमदार चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ-त्से-तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से एक थे। मजूमदार का मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं। जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और परिणामस्वरुप कृषि तंत्र पर दबदबा हो गया हैं यह सिर्फ़ सशस्त्र क्रांति से ही ख़त्म किया जा सकता है। 1967 में नक्सलवादियों ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हो गए। अलग होने के बाद उन्होंने सरकार के ख़िलाफ़ भूमिगत लड़ाई छेड़ दी। 1971 के आंतरिक विद्रोह और मजूमदार की मृत्यु के बाद इस आंदोलन की बहुत-सी शाखाएँ हो गईं और आपस में प्रतिद्वंदिता करने लगी। आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गई हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेती हैं। लेकिन बहुत से संगठन अभी भी छुपकर लड़ाई करने में लगे हुए हैं। नक्सलवाद की सबसे बड़ी मार आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल और बिहार को झेलनी पड़ रही है।
पर मेरे हिसाब से नक्सलवाद का खात्मा जमीदारों, पूंजीपतियों के हितों की रक्षा हेतु पुलिस-बल बढ़ाकर नहीं बल्कि जन-सापेक्ष विकास द्वारा जनता की ताकत बढ़ाकर ही किया जा सकता है, हिंसा तथा जवाबी प्रतिहिंसा से इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता। इसका हल बातचीत से ही संभव है।

किंजल कुमार
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मंगलवार, मई 28, 2013

यात्रा नाथो के नाथ अमरनाथ की

एक हिंदी मासिक पत्रिका के यात्रा सेगमेंट के लिए लिखा गया मेरा ये लेख। आशा है आपको पसंद आयेगा......!

गर्मी का मौसम है, सूरज का पृथ्वी से प्रेम अपने चरम पर है जिसकी तपन से हम और आप झुलस रहे है, हर पल गाहे बगाहे प्रभु को याद करके कह रहे है, "कुछ तो दया करो" मन बस यही करता है चल भाग चल उन वदियॊ में जहा उसकी तपन ना पहुचे। मौसम भी है दस्तूर भी, तो मैंने सोचा क्यो ना इश बार यात्रा के जरिये आपको प्रभु से मिलाने उनके ही द्वार अमरनाथ ले चलु जहा आपके तन के साथ साथ मन को भी सुकू मिले। तो आइये चलते है बाबा भोलेनाथ की नगरी.....

अमरनाथ हिन्दुओ का एक प्रमुख शिव तीर्थ स्थल है। जो की कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर के उत्तर-पूर्व में १३५ किलोमीटर दूर समुद्रतल से १३,६०० फुट की ऊँचाई पर स्थित है। इस गुफा की लंबाई (भीतर की ओर ) १९ मीटर और चौड़ाई १६ मीटर है जबकि ऊंचाई ११ मीटर है।

इश धाम की प्रमुख विशेषता गुफा में बर्फ से प्राकृतिक शिवलिंग निर्मित होना है। आषाढ़ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षाबंधन तक पूरे सावन महीने में होने वाले पवित्र हिमलिंग दशर्न के लिए लाखो लोग यहां आते है। गुफा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है जिसमे ऊपर से बर्फ के पानी की बूँदें जगह-जगह टपकती रहती हैं। यहीं पर एक ऐसी जगह है, जिसमे टपकने वाली हिम बूँदों से लगभग दस फुट लंबा शिवलिंग बनता है। चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ इस शिवलिंग का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है।श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावश्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। आश्चर्य की बात यही है की यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है, जबिक गुफा में आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पारवती जी के वैसे ही अलग अलग हिमखंड हैं।
अमरनाथ के बारे में कई जनस्रुतिया भी प्रचलित है जैसे की इसी गुफा में माता पावर्ती को भगवान शिव ने अमरकथा सुनाई थी, जिसे सुनकर सद्योजात शुक-शिशु शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गये थे। गुफा में आज भी स्रधालुओ को कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई दे जाता है, जिन्हें स्रधालु अमर पक्षी बताते हैं। मान्यता है वे भी अमरकथा सुनकर अमर हुए हैं। कहा जाता है की जिन स्रधालुओ को कबूतरों का जोड़ा दिखाई देता है, उन्हें शिव पावर्ती अपने प्रत्यक्ष दशर्नों से निहाल करके उस प्राणी को मुक्ति प्रदान करते हैं। यह भी माना जाता है की भगवान शिव ने अर्धांगिनी पावर्ती को इस गुफा में एक ऐसी कथा सुनाई थी, जिसमे अमरनाथ की यात्रा और उसके मार्ग में आने वाले अनेक स्थलों का वर्णन था। यह कथा कालांतर में अमरकथा नाम से विख्यात हुई।
पूरे यात्रा पथ के बारे में कुछ विद्वानों का  भी मत है की भगवान शंकर जब पावर्ती को अमर कथा सुनाने ले जा रहे थे, तो उन्होंने छोटे-छोटे अनंत नागों को अनंतनाग में छोड़ा, माथे के चंदन को चंदनबाड़ी में उतारा, अन्य पिस्सुओ को पिस्सू टॉप पर और गले के शेषनाग को शेषनाग नामक स्थल पर छोड़ा था। ये तमाम स्थल अब भी अमरनाथ यात्रा में आते हैं।
अमरनाथ गुफा का सबसे पहले पता सोलहवीं शताब्दी के पूवार्ध में एक मुसलमान गडरिये को चला था। आज भी मंदिर का चौथाई चढ़ावा उस मुसलमान गडरिये के वंशजों को मिलता है। आश्चर्य की बात यह है की अमरनाथ गुफा एक नहीं है। अमरावती नदी के पथ पर आगे बढ़ते समय और भी कई छोटी-बड़ी गुफाएं दिखाई देती हैं। वे सभी बर्फ से ढकी हैं। अमरनाथ पर जाने के दो रस्ते हैं। एक पहलगाम होकर और दूसरा सोनमर्ग बटलाल से। पहलगाम और बलटाल तक आप किसी भी सवारी से पहुँचें, यहाँ से आगे जाने के लिए अपने पैरों का ही इस्तेमाल करना होगा। अशक्त या वृद्धों के लिए सवारियों का प्रबंध किया जा सकता है। पहलगाम से जानेवाले रास्ते को सरल और सुविधाजनक समझा जाता है। बलटाल से अमरनाथ गुफा की दुरी केवल १४ किलोमीटर है पर यह बहुत ही दुर्गम रास्ता है और सुरक्षा की दृष्टी से भी खतरनाक है। इशिलिये सरकार इस मार्ग को सुरक्षित नहीं मानती है और अधिकतर यात्रियों को पहलगाम के रास्ते अमरनाथ जाने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन रोमांच और जोखिम लेने का शौक रखने वाले लोग इस मार्ग से यात्रा करना पसंद करते हैं। इस मार्ग से जाने वाले लोग अपने जोखिम पर यात्रा करते है। रास्ते में किसी अनहोनी के लिए भारत सरकार जिम्मेदारी नहीं लेती है।
मै जोखिम नहीं उठाता हु और आपसे भी यही आशा करता हु, क्योकि जीवन अनमोल है, पहलगाम तक जाने के लिए जम्मू-कश्मीर पयर्टन केंद्र से सरकारी बस हमेशा उपलब्ध रहती है। पहलगाम में गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से लंगर की व्यवस्था हमेशा की जाती है। तीर्थयात्रियो की पैदल यात्रा यहीं से आरंभ होती है। पहलगाम के बाद पहला पड़ाव चंदनबाड़ी है, जो पहलगाम से आठ किलोमीटर कीदुरी पर है। पहली रात तीर्थयात्री यहीं बिताते हैं। यहाँ रात्रि निवास के लिए कैंप लगाए जाते हैं। लिद्दर नदी के किनारे-किनारे पहले चरण की यह यात्रा ज्यादा किठन नहीं है। चंदनबाड़ी से १४ किलोमीटर दूर शेषनाग में अगला पड़ाव रहता है। यह मार्ग खड़ी चढ़ाई वाला और खतरनाक भी है। यहीं पर पिस्सू घाटी के दशर्न होते हैं। फिर उसके बाद यात्री शेषनाग पहँच कर ताजादम होते हैं। यहाँ पवर्तमालाओं के बीच नीले पानी की एक खुबसूरत झील है। यह झील करीब डेढ़ किलोमीटर लम्बाई में फैली है। मान्यताओ के अनुसार शेषनाग झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दशर्न देते हैं। तीर्थयात्री यहाँ रात्रि विश्राम करते हैं और यहीं से तीसरे दिन की यात्रा शुरू करते हैं।
शेषनाग से अगला पड़ाव पंचतरणी आठ मील के फासले पर है। मार्ग में बैववैल टॉप और महागुणास दर्रे को पार करना पड़ता हैं, महागुणास चोटी से पंचतरणी तक का सारा रास्ता उतराई का है। पांच छोटी-छोटी सरिताए बहने के कारण ही इस स्थल का नाम पंचतरणी पड़ा है। यह स्थान चारों तरफ से पहाड़ों की ऊंची-ऊंची चोटियों से ढका है। ऊँचाई की वजह से ठंड भी ज्यादा होती है। ऑक्सीजन की कमी की वजह से तीर्थयात्रियो को यहाँ सुरक्षा के इंतजाम करने पड़ते हैं।
अमरनाथ की गुफा यहाँ से केवल आठ किलोमीटर दूर रह जाती हैं रस्ते में बर्फ ही बर्फ जमी रहती है। इसी दिन गुफा के नजदीक पहुँच कर पड़ाव डाल रात बिता सकते हैं और दुसरे दिन सुबह बाबा भोलेनाथ के वास स्थान अमरनाथ पहुच कर, उनके दर्शन कर, पूजा अर्चन कर पंचतरणी लौटा जा सकता है। यह यात्रा काफी कठिन है, लेकिन अमरनाथ की पवित्र गुफा में पहुचते ही सफ़र की सारी थकान पल भर में छू मंतर हो जाती है और मन को अद्भुत आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती है।
आशा है आपको मेरे द्वारा करायी गयी शब्दों की ये यात्रा पसंद आई होगी और आपके मन में भी एक बार वास्तविक यात्रा करने की हसरत जरूर जगी होगी।

सोमवार, मई 13, 2013

हिंदी में ब्लोगिंग के दस साल और मेरा ब्लॉग

क्या आपको मालूम था की हिंदी में ब्लोगिंग को दस साल हो गए और इसकी सुरुवात किस तरह हुई? नहीं ना, मुझे भी नहीं मालूम था। हिंदी ब्लोगिंग के दस साल पूरे होने पर inext ने 21 अप्रैल 2013 को एक पूरे पजे का आर्टिकल निकाला जिसमे जिन दो ब्लॉग को जगह दी गयी उसमे एक ब्लॉग मेरा भी फोटो सहित था। एक बात आप सब से भी कहूँगा, मातृभाषा का सम्मान करे।

शनिवार, मई 11, 2013

एक छोटी सी यात्रा बिठुर की

मैंने अक्सर महर्षि बाल्मीकि और उनके आश्रम के बारे में सुन और पढ़ रखा था, मन में सवाल भी आता था की क्या कभी मै वह जा पाउँगा? अभी कुछ दिनों पहले मेरा कानपूर जाना हुआ तो लगा आज मौका भी है दस्तूर भी, फिर क्या निकल पड़ा मै अपने दोस्त के साथ बिठुर के लिए। अब बिठुर क्या है? खुद पढ़िए और जानिए....
महर्षि वाल्मीकि की तपोभूमि बिठूर को प्राचीन काल में ब्रह्मावर्त नाम से जाना जाता था। यह शहर उत्तर प्रदेश के औद्योगिक शहर कानपुर से 22 किमी. दूर कन्नौज रोड़ पर स्थित है। शहरी शोर शराबे से उकता चुके लोगों को कुछ समय बिठूर में गुजारना काफी रास आता है। बिठूर में ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के अनेक पर्यटन स्थल देखे जा सकते हैं। गंगा किनार बसे इस नगर का उल्लेख प्राचीन भारत के इतिहास में मिलता है। अनेक कथाएं और किवदंतियां यहां से जुड़ी हुईं हैं। इसी स्थान पर भगवान राम ने सीता का त्याग किया था और यहीं संत वाल्मीकि ने तपस्या करने के बाद पौराणिक ग्रंथ रामायण की रचना की थी। कहा जाता है कि बिठूर में ही बालक ध्रुव ने सबसे पहले ध्यान लगाया था। 1857 के संग्राम के केन्द्र के रूप में भी बिठूर को जाना जाता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा नदी के किनार लगने वाला कार्तिक अथवा कतकी मेला पूर भारतवर्ष के लोगों का ध्यान खींचता है।
वैसे तो वहा पर देखने के लिए कई स्थल है पर जो मुख्य है आइये आपको उसके बारे में बताता हु।

वाल्मीकि आश्रम- हिन्दुओं के लिए इस पवित्र आश्रम का बहुत महत्व है। यही वह स्थान है जहां रामायण की रचना की गई थी। संत वाल्मीकि इसी आश्रम में रहते थे। राम ने जब सीता का त्याग किया तो वह भी यहीं रहने लगीं थीं। इसी आश्रम में सीता ने लव-कुश नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। यह आश्रम थोड़ी ऊंचाई पर बना है, जहां पहुंचने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं। इन सीढ़ियों को स्वर्ग जाने की सीढ़ी कहा जाता है। आश्रम से बिठूर का सुंदर दृश्य देखा जा सकता है।
ब्रह्मावर्त घाट- इसे बिठूर का सबसे पवित्रतम घाट माना जाता है। भगवान ब्रह्मा के अनुयायी गंगा नदी में स्‍नान करने बाद खडाऊ पहनकर यहां उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। कहा जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने यहां एक शिवलिंग स्थापित किया था, जिसे ब्रह्मेश्‍वर महादेव के नाम से जाना जाता है।
पाथर घाट- यह घाट लाल पत्थरों से बना है। अनोखी निर्माण कला के प्रतीक इस घाट की नींव अवध के मंत्री टिकैत राय ने डाली थी। घाट के निकट ही एक विशाल शिव मंदिर है, जहां कसौटी पत्थर से बना शिवलिंग स्थापित है।
ध्रुव टीला- ध्रुव टीला वह स्थान है, जहां बालक ध्रुव ने एक पैर पर खड़े होकर तपस्या की थी। ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उसे एक दैवीय तारे के रूप में सदैव चमकने का वरदान दिया था।
इन धार्मिक स्थानों के अलावा भी बिठूर में देखने के लिए बहुत कुछ है। यहां का राम जानकी मंदिर, लव-कुश मंदिर, हरीधाम आश्रम और नाना साहब स्मारक अन्य दर्शनीय स्थल हैं।
ये सब जानने के बाद मन में एक बार वहा जाने का विचार तो आ ही गया होगा, पर अब सवाल ये उठ रहा होगा की वहा जाये कैसे और रुके कहा? तो आइये उसको भी बताता हु।
वायु मार्ग- बिठूर का नजदीकी एयरपोर्ट कानपुर व लखनऊ है। यहाँ दिल्ली से नियमित सुविधा उपलब्ध है।
रेल मार्ग- कल्याणपुर यहां का नजदीकी रेलवे स्टेशन है। कानपुर जंक्शन यहां का निकटतम बड़ा रेलवे स्टेशन है, जो की भारत के लगभग सभी बड़े सहरो से जुड़ा हुआ है।
सड़क मार्ग- बिठूर आसपास के शहरों से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। लखनऊ, कानपुर, आगरा, कन्नौज, दिल्ली, इलाहाबाद आदि शहरों से बिठूर के लिए नियमित बस सेवा उपलब्ध है।
बिठुर एक छोटा नगर है, इसलिए वहा पर ठहरने के लिए अच्छे होटल नहीं मिलेंगे पर कानपुर यहाँ से मात्र 22 किलोमीटर की दूरी पर है। जहा पर आप अपनी सुविधा अनुसार कोई भी होटल ले सकते है।
बिठुर के भौगोलीक स्थिति की बात करे तो ये लगभग 5 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है और समुद्र तल से इसकी ऊंचाई लगभग 126 मीटर है। जबकि इस पूरे छेत्र में समानाय्तः हिंदी और अवधी बोली जाती है।
तो कब जा रहे है आप बिठुर? आशा है आपको मेरी ये यात्रा पसंद आई होगी।