शनिवार, अप्रैल 27, 2013

शारदा चिटफंड घोटाला और मीडिया


शारदा चिटफंड घोटाले मामले में आजकल चारो तरफ हडकंप मचा है। हज़ारों करोड़ रुपये के इस गोलमाल ने पश्चिम बंगाल ही नहीं बल्कि पूर्वोत्तर भारत के लाखो गरीबों की जिंदगियों को पटरी से ही उतार डाला है। इस मायने में ये घोटाला महज़ एक आर्थिक अपराध न होकर एक जघन्यतम कृत्य बनकर उभरा है, जिसमें गरीबों से उनके मुंह का निवाला छीना गया है जो पहले से दो जून की रोटी नहीं जुटा पा रहे थे, उनको भीख मागने पर मजबूर कर दिया है। इसको केवल इशी आकडे से समझिये की ये घोटाला लगभग तीस हजार कड़ोड़ का है।
मीडिया ने शुरुआत में तो इस मामले को बड़ी सक्रियता के साथ उठाया और शायद ये मीडिया के शोर का ही परिणाम था की तक़रीबन महीने भर से फरार चल रहे इस पूरे घोटाले के कर्ता-धर्ता सुदिप्तो सेन मीडिया सक्रियता के पांच दिनों के भीतर ही पकड़े गये। लेकिन इस पूरे मामले की रिपोर्टिंग ने ये भी साबित कर दिया है मीडिया उसे तो गले से पकड़ लेती है जिसकी ताकत या पहुंच नहीं होती लेकिन जब बात पहुंच वाले या प्रभुत्व और प्रभावशाली लोगो तक पहुचती है तो मीडिया कैसे अपना रास्ता बदल लेती है।
ये चिटफंड घोटाला इस बात का उदहारण है साथ ही इश बात का भी की इंसान इस हद तक नीचे गिर गया है कि अपने फायदे के लिए भिखारी को भी लूट सकता है। मीडिया का रवैया अलग-अलग स्तर के (सामाजिक और राजनीतिक प्रभुत्व के सन्दर्भ में) संदिग्धों के लिए किस कदर अलग अलग हो सकता है। एक ही मामले में लगभग एक ही तरह की भूमिका के लिए अलग-अलग लोगों से मीडिया किस प्रकार अलग अलग तरीकों से डील करती है- ये मामला इस सन्दर्भ में एक अच्छा केस-स्टडी हो सकता है।

दरअसल चौतरफा दबाव बढ़ने पर और किसी भी समय अपना खेल पूरी तरह ख़त्म होने के आशंकाओं के बीच शारदा ग्रुप के मालिक सुदिप्तो सेन ने 6 अप्रैल, 2013 को सीबीआई को एक चिट्ठी लिखी थी जिसमें उन्होंने पूरे विस्तार से ये बताया था कि किस तरह कुछ मीडिया के लोगों और राजनेताओं ने उसे हर मुसीबत में बचाया और इसकी तगड़ी कीमत वसूली। जिन तीन बड़े नामों का मुख्यतः इस पत्र में उल्लेख था उनमे दो तृणमूल कांग्रेस के सांसद हैं और तीसरा नाम है वित्त मंत्री पी चिदंबरम की पत्नी नलिनी चिदंबरम का। चूँकि तृणमूल कांग्रेस का प्रभुत्व क्षेत्रीय है और अभी वो दिल्ली के सत्ता-समीकरणों से भी बाहर है तो हमारा मीडिया उन पर तो पिल पड़ा पर किसी भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उल्लेख मात्र के लिए भी इस पूरे मामले में नलिनी चिदंबरम का नाम नहीं लिया।
चिट्ठी में इस बात का साफ़ उल्लेख किया गया है कि नलिनी चिदंबरम ने पूर्वोत्तर-भारत में एक क्षेत्रीय चैनल खोलने के लिए सुदिप्तो सेन पर 42 करोड़ देने का दबाव बनाया था। ये उस समय की बात है जब सुदिप्तो सेन वित्त मंत्रालय और सेबी के राडार पर थे। किसी भी इलेक्ट्रॉनिक चैनल ने इस बात का रत्ती भर भी उल्लेख नहीं किया जबकि इसी तरह के आरोपों के लिए दिन भर ये चैनल तृणमूल कांग्रेस के उन दो सांसदों की मिट्टी पलीद करते रहे। ऐसा कहने का मकसद तृणमूल कांग्रेस का किसी तरह का समर्थन नहीं है बल्कि जो भी इस काम में रत्ती भर भी शामिल रहे हैं, उन्हें सार्वजनिक मंचों पर इसी तरह जलील किया जाना चाहिए।
दरअसल इस मामले के "मेरिट" पर यदि बात की जाये तो चिटफंड केन्द्रीय वित्त मंत्रालय के अधिकार-क्षेत्र में आता हैं और राज्यों या स्थानीय प्रशासन की भूमिका तभी आती है जब किसी गड़बड़ी की शिकायत की जाये. इस लिहाज़ से किसी पूर्व वित्त मंत्री और अगले वित्त मंत्री होने के प्रबल दावेदार की पत्नी का आरोपी से पैसे की मांग करना निश्चित रूप से ज्यादा बड़ी खबर है बनिस्पत स्थानीय प्रशासन के मिलीभगत से. यही पत्रकारिता का तकाजा भी है। लेकिन किसी भी चैनल ने इस तथ्य को प्राथमिकता नहीं दी। प्रिंट मीडिया ने भी ऐसी ही कारस्तानी दिखाई। सबसे पहले तो नलिनी चिदंबरम "हेड-लाइन" से गायब रहीं और बीच में कही हल्का उल्लेख कर दिया गया। कुछ ने तो एक कदम आगे बढ़- "यूपीए सरकार के एक ताकतवर मंत्री की पत्नी" जैसे जुमले का प्रयोग किया, जबकि तृण-मूल कांग्रेस के दोनों सांसदों के बाकायदा नाम दिए गए।
यदि नलिनी चिदंबरम के नाम का उल्लेख न करने का कारण ये था कि ये धोखेबाजी के एक आरोपी का आरोप है जो विश्वसनीय नहीं माना जा सकता तो ये तर्क फिर तृणमूल कांग्रेस के उन दो सांसदों पर भी लागू होता है। मीडिया का ये दोहरा चेहरा खुद उसके लिए ही घातक है।
पर मेरा सबसे बड़ा सवाल सीधे आपसे: क्या इतना बड़ा घोटाला बिना राजनीतिक, प्रशासनिक सहयोग के केवल सुदिप्तो सेन के बस की बात थी? जवाब शायद आपको मिल गया होगा।
मै यहाँ पर किसी का समर्थन नहीं कर रहा हु। मै तो केवल ये सवाल उठा रहा हु की आखिर क्यों बाते पूरी तरह से उभर कर सामने नहीं आ पाती है? क्या कारण है की पत्रकारिता अपना पूरा धर्म नहीं निभाती है? कही सब लक्ष्मी की माया तो नहीं है? जवाब मिले तो मुझे भी बताइयेगा। मुझसे मिले......!
किंजल कुमार 

Kinjal Article published in inext news paper on 20 April 2013

My three year old Article published in inext news paper on 20 April 2013

Kinjal Article published in inext news paper on 13 April 2013

My Article published in inext news paper on 13 April 2013

रविवार, अप्रैल 21, 2013

किंजल की कलम से किंजल सिंह और न्याय की देवी

        न्याय की देवी की जब भी परिकल्पना हुई होगी तो शायद यही सोच कर हुई होगी की समाज में सामंजस्य बना रहे। लोगो के अन्दर अपराध, बुराई के प्रति एक डर बना रहे। ताकि लोग चैन और सुकून से समाज में सास ले सके। हमने बचपन से ही न्याय के ना जाने कितने ही किस्से, कहानिया अपने बड़े बुजुर्गो से सुनी होंगी, ताकि हम भी उन गलत राहो पे ना जाये जैसा की उन किस्सों कहानियो में अपराधी जाते थे, अगर गलती से भी हम उधर जाने की सोचे तो अपराधियों को मिली सजा का डर हमे अपने कदमो को वापस खीचने पर विवश कर दे। कालांतर से लेकर अब तक न्याय के नियम और न्याय की देवी का रूप न जाने कितनी ही बार बदला। जिसकी सत्ता रही, प्रभाव रहा उसने उन्हें अपने अनुसार ढाल लिया, आज की न्याय की देवी ने अपनी आँखों पर काली पट्टी शायद इशी लिए बधवाना स्वीकार किया होगा ताकि वो सबको एक सामान नजर से देख सके, वो आमिर-गरीब, जात-पात, धर्म-संप्रदाय में लोगो को न देख केवल सत्य, तथ्य और सबूतों को अपने उस तराजू में रख कर तौल सके जिसको उन्होंने अपने हाथो से संतुलित अवस्था में पकड़ा हुआ है और परिणाम स्वरुप सत्य, कर्तव्य, निष्ठा में लोगो का विश्वाश न्याय से, न्याय के प्रति, समाज के प्रति जगा सके।
        न्याय के हमने ना जाने कितने ही किस्से सुने, जिनमे हमने कभी पल में न्याय होते देखा तो कभी न्याय की आशा में सदियॊ को गुजरते, पीढियों को मरते। कभी न्याय के किस्सों को सुनकर मन हर्ष से भर उठता तो कभी न्याय के कुछ दुसरे किस्सों को सुनकर वही मन शर्म से भर उठता। मन में अक्सर एक वेदना भी उठती की आखिर ऐसा क्यों होता है ? क्या कारण है? की मन को शर्म से भरना पड़ता है।
        तो सोचा क्यों ना न्याय के मंदिर से निकले, न्याय के किस्सों रूपी संग्रह के कुछ पन्नो को पलट कर देखा जाये। जब पन्नो को पलटा तो महसूश हुआ की, न्याय के इन संग्रहों के पन्नो को जब भी हम पलट कर देखेंगे तो उसमे न जाने कितने ही ऐसे काले अध्याय लिखे मिलेंगे, जो हमे ना चाहते हुए भी अपनी इस व्यवस्था को कोसने को मजबूर करेंगे। ऐसे किस्सों को सुनाने बैठू तो शायद सदिया गुजर जाये पर वो किस्से ना ख़त्म होगे। और फिर सदियों का समय ना आप दे पाएंगे और ना ही मै उन्हें संभाल। न्याय के मंदिर से, न्याय की देवी का, कहने को न्याय रूपी निकला केवल एक ही किस्सा आपको सुनाता हु। जो अभी कुछ दिनों पहले आया है। और शायद अब भी आपकी जहाँ में जिन्दा होगा। जो शायद इश न्याय व्यवस्था का वो दूसरा चेहरा भी आपको दिखायेगा।
        ये किस्सा है: 13 मार्च 1982 के उत्तर-प्रदेश के गोंडा जिले के मधवापुर गाव का, जब स्वार्थवश एक फर्जी मुठभेड़ में तत्कालीन गोंडा के DSP स्वर्गीय श्री कृष्ण प्रताप सिंह समेत दर्जन भर निर्दोष गाव वालो को उन्ही के विभाग के भ्रष्ट सहयोगियों ने गोली का सिकार बना हत्या कर दी थी। कृष्ण प्रताप सिंह सिंह जी के परिवार में उस समय उनकी पत्नी विभा सिंह  और दो बच्चिया किंजल गोद में और प्रांजल माँ के पेट में थी। उनकी पत्नी के लिए न्याय की लड़ाई लड़ना कितना कठिन हो गया होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। वो भी तब जब फर्जी मुडभेड को अससली का रूप दिया जा चूका हो, जाच करने वाले और आरोपी कोई और नहीं बल्कि खुद पुलिश वाले ही हो। दुनिया की रीत है अगर अपवादों को छोड़ दे तो बुरे वक़्त में जाने पहचाने तो क्या अपने भी साथ छोड़ देते है पर यहाँ भी माँ नहीं घबराई और जीवन में केवल तीन ही मकसद ठान लिया। पहला तो अपनी बच्चियों का अच्छा लालन-पालन कर एक सफल इंसान बनाना, दूसरा अपने पति और उनके साथ मरे गए निर्दोष ग्रामीणों के साथ दोषियों को कठोर सजा दिलाना और तीसरा अपनी बच्चियों के द्वारा उस आवाज को बुलंद करना जिसको बुलंद करते-करते उनके पति ने अपने प्राणों की आहुति दे दी मतलब भ्रसटाचार के खिलाफ आवाज।
        ये पूरी राह आशान न थी। उन्होंने दोनों को न जाने कितनी ही राते जागते हुए, आचल की आड़ में सिसकिया लेते हुए, गैरो से ज्यादा अपनों से मिले जख्मो को सुखाते हुए जीवन संघर्षो के बीच उन्हें पाला। पर शायद खुदा को इतने में भी सबर न था, या यु कहे की बच्चियों को कुंदन बनने के लिए अभी और आग में तपना था। दोनों बच्चियों ने अभी ठीक से होश भी ना संभाला था की माँ को कैन्सर ने जकड लिया था। अब उस माँ के सामने कई और चुनौतिया आन खड़ी थी। चुनौतियों का सामना करते हुए उस माँ ने अपनी दोनों बच्चियों को उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली भेज दिया। अभी पढाई चल ही रही थी की अक्टूबर 2004 में माँ भी चल बसी। उनके निधन के दो दिनों बाद किंजल का पेपर था। दुखो से दबी पर साहस से भरी किंजल ने हर चुनौती का सामना किया और न सिर्फ पास हुई बल्कि गोल्ड मैडल भी हाशिल किया। दुखो के घोर अधेरो के बिच दोनों ने पढाई जारी रक्खी और ठान लिया IAS बनने का। अपने माँ पापा के आशीर्वाद से और उनके दिए साहस से दोनों ने एक साथ परीक्षा दी और दोनों का एक साथ चयन अखिल भारतीय सिविल सेवा में हुआ। दोनों की आँखे आशुओ से नम थी, उनमे कुछ ख़ुशी के थे तो कुछ गम के, ख़ुशी माँ बाप के सपनो को पूरा करने की और गम उनके साथ न होने का। आज दोनों के पास सब कुछ है, धन, दौलत, रुतबा, सोहरत, ताकत और वो रिश्तेदार भी जो कस्ट के समय दामन छुड़ा के चले गए थे और आज गर्व करते नहीं अघाते की हमारे रिश्तेदार किंजल UP IAS कैडर से बहराइच जिले की DM है। जबकि प्रांजल चंडीगढ़ में कस्टम कलेक्टर।
        शायद सही ही कहा है, "हर दिन होत ना एक समान" पर लड़ाई अब भी बाकी थी, माँ के पहले मकसद को पूरा कर चुकी बेटियों के सामने, पिता और निर्दोष ग्रामीणों को न्याय दिलाने की लड़ाई अब भी जारी थी। दिन पड़ता, तारीख पड़ती, मजमा लगता और वक्त गुजर जाता। फिर वो 5 अप्रैल 2013 का दिन भी आया जब CBI कोर्ट ने UPP के वर्तमान दरोगा पाण्डेय सहित तीन अन्य को फासी व अन्य कई को उम्रकैद की सजा सुनाई।
अपने माँ के दुसरे मकसद को भी बेटिया लगभग आधा पूरा कर चुकी है, आधा बाकि है, पर हा सफ़र लम्बा है। CBI कोर्ट में सजा तो मिल गयी लेकिन उस सजा और क्रियान्वयन के बीच में कई और न्याय के मंदिर मिलेंगे और जरुरी नहीं हर जगह न्याय की देवी का प्रसाद एक सामान हो। जहा तक रही माँ के तीसरे मकसद की बात, तो ये आने वाला वक़्त ही बताएगा की वो बच्चिया कितनी बड़ी हो चुकी होगी? वो अपने पिता के आदर्शो को, माँ के सपनो को किश रूप में प्रस्तुत करेंगी।
        न्याय के इश किस्से को सुनाने का मेरा मूल मकसद ये था की आप जाने एक व्यक्ति की अपने कर्मो के प्रति समर्पण, ईमानदारी के बारे में। एक माँ की त्याग और लड़ाई के बारे में। दो लडकियों के जीवन संघर्स के बारे में। और सबसे ज्यादा हमारी न्याय व्यवस्था के बारे में। आप सोच रहे होंगे कितनी अच्छी न्याय व्यवस्था है, न्याय तो मिल गया। लेकिन आइये अब आपको दिखाता हु, इशी किस्से में, इशी न्याय व्यवस्था का एक दूसरा रुख। फिर आप कहियेगा क्या यही है हमारी न्याय व्यवस्था।
        श्री K.P. सिंह जी के साथ जब घटना घटी तब तारीख थी 13 मार्च 1982 और CBI कोर्ट से जो फैसला आया उस दिन तारीख थी 5 अप्रैल 2013 । न्याय की आश में 31 साल गुजर गए। इश दौरान कई आरोपी फरियादी इश लोक से उस लोक चले गए जहा से कोई लौट कर नहीं आता, वही दूसरी तरफ उस समय के कई बच्चो के अब बच्चे जवा हो गए। कइयो के लगाये पेड़ो ने अब फल देना बंद कर दिया। पर हा देर से ही सही न्याय के मंदिर से, न्याय की देवी की कलम से, न्याय रूपी फल भी निकला। पर सवाल ये उठता है की ये फल अब है किस लायक? क्या इससे अब किसी फरियादी की भूख मिटेगी? इतने सालो बाद तो CBI कोर्ट से फैसला आया है, अब ये केस हाईकोर्ट में जायेगा, वह भी न जाने कितनो के कितने बसंत बीतेंगे। उसके बाद भी जो फल आएगा वो भी खाने लायक नहीं रहेगा, क्योकि तब वो चढ़ेगा सुप्रीम कोर्ट रूपी न्याय के मंदिर में। फिर वहा भी ये केस न जाने कितने मेजो पर मथ्था टेकेगा। और उसके पस्चात अगर सच में न्याय रूपी फल निकला तो वो कटने के लिये न जाने कितने साल तो महामहिम की चौखट पर घंटिया बजाएगा। पर मुझे कहने में संकोच नहीं हो रहा है की इश व्यवस्था से गुजरने के बाद वो फल मात्र आभाशी फल से अधिक कुछ नहीं रह जायेगा। न कोई असली आरोपी रह जायेंगे न कोई फरियादी। क्योकि निचली अदालत से फैसला आने में अगर 31 साल लग गए तो किसी को ये मानने में संकोच न होगा की अगले दो मंदिरों से गुजरने में कुल मिला कर कम से कम 31 साल और लगेंगे। और उसके बाद महामहिम के पास कम से कम 5 साल। कुल मिलाकर देखे तो एक न्याय को पाने में लग गए 67 साल। और भारत की जनता की औसत आयु है मात्र 64 साल। वैसे भी घटना के वक्त सभी आरोपी व्यस्क थे मतलब अंतिम फैसला आने तक कोई ना बचेगा। वैसे भी उनमे से अधिकतर अभी ही स्वतः मृतुलोक को जा चुके है, या फिर उनके बिच मात्र चंद कदमो का फासला रह गया है। तो हुआ न आभाशी फल।
        ये स्थिति तब है जब हमला हुआ था खुद पुलिश पर वो भी DSP रैंक के अधिकारी पर, फरियादी मौजूदा समय की PCS ऑफिसर थी और वर्त्तमान फरियादी IAS और जिले की मुखिया है।मात्र इशी से कल्पना की जा सकती है की भारत में हमारे आप जैसे आम आदमी के लिए न्याय के मंदिर से, न्याय की देवी द्वारा, न्याय पाना कितना कठिन है।
आखिर क्या कारण है की मंदिर की चौखट से अन्दर जाने के बाद बहार आने में इतना वक्त लग जाता है? इश पूरी व्यवस्था को किसने बनाया? क्यों बनाया? अगर कही कुछ कमिया है तो उसे कोइ दूर क्यों नहीं करता? खुद सोचिये। और मुझसे जानने के लिए पढ़िए इश न्याय व्यवस्था पर कुठाराघात करता मेरा अगला लेख। हो सकता है मेरे इश लेख में कुछ कमिया रह गयी हो या फिर आपका कुछ सुझाव हो तो मुझसे मिले.......
किंजल कुमार
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गुरुवार, अप्रैल 11, 2013

भारतीय नव वर्ष एव नवरात्री की हार्दिक सुभकामनाए

 
दिन गुजरते है, साल गुजरता है, वक्त यु ही चलता रहता है, समय किसी के लिए नहीं रुकता। इस समय के चाल में जीवन, जीवन के कई रंग दिखता है। समझ में नहीं आ रहा की बीते हुए समय में जो गलत हुआ, जो लोग बिछड़े उसको लेकर शोक मनाऊ या फिर आने वाले समय का स्वागत करू? गीता का एक श्लोक अक्सर मुझे याद आता है। "जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा हो रहा है, जो होगा वो भी अच्छा होगा" और अपने बड़ो से हमेशा मैंने सुना है की, पॉजिटिव रहे और सोचे। तो ठीक है मै भी इन्ही बातो को अपनाता हु। और आपको, आपके परिवार को, मित्रो को मेरी व मेरे सभी जानने वालो की तरफ से भारतीय नव वर्ष एव नवरात्री की हार्दिक सुभकामनाए देते हुए आपके उर्जावान स्वर्णिम भविष्य की कामना करता हु। [किंजल]