अपने बचपन का सफ़र याद आया
मुझको परियों का नगर याद आया
कोई पत्ता हिले न जिसके बिना
रब वहीं शाम-ओ-सहर याद आया
इतना शातिर वो हुआ है कैसे
है सियासत का असर याद आया
रोज़ क्यूँ सुर्ख़ियों में रहता है
है यही उसका हुनर, याद आया
जब कोई आस ही बाक़ी न बची
मुझको बस तेरा ही दर याद आया
जो नहीं था कभी मेरा अपना
क्यूँ मुझे आज वो घर याद आया
उम्र के इस पड़ाव पे आकर
क्यूँ जुदा होने का डर याद आया
माँ ने रख्खा था हाथ जाते हुए
फिर वही दीद-ऐ-तर याद आया
जिसकी छाया तले ‘किरण’ थे सब
घर के आँगन का शजर याद आया
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