कल आमीर का शो सत्यमेव जयते देखा उसमे जो कल का मुद्दा था उस्से मैने खुद को कई जगह जुडा हुआ पाया, निस्चित ही अगर आपने देखा होगा या देखते तो आप भी ऐसा ही मह्सुश करते, मुद्दा ही ऐसा था। मुद्दा था- "रोड ऐक्सिडेन्ट"
शहर के अन्दर रहने के कारण बचपन से ही अक्सर रोड और उस पर होने वाले ऐक्सिडेन्ट से मॆरा समना होता रहता था, उमेश भैया कि बीमारी कि वजह से बचपन मे ही छ: महीने तक इलहाबाद मेडीकल कालेज मे रहा, जहा पर रोज रोड ऐक्सिडेन्ट कि वजह से लोगो को मरते, हाथ पैर जोड्वाते, कटवाते, सर पर टाके लगवाते और उनसे जुडे लोगो को रोते बिलखते देखा। जिसके कारण ऐक्सिडेन्ट क्या होता है? इसकी भयानक तस्वीर मेरे मन मश्तिश्क मे बन चुकी थी। मै तब से हमेशा इस्से बचने का हर प्रयाश करने लगा और ऐक्सिडेन्ट की चपेट मे आये लोगो की जहा तक हो सके मदद भी करने लगा। चिरागन NGO कि सुरुवात करने का कही न कही एक कारण ऐक्सिडेन्ट भी बना।
जब मै गाडी चलाने लगा या दोस्तो के साथ उनकी गाडी पर बैठने लगा तो अक्सर मै ऐक्सिडेन्ट को ध्यान मे रखने लगा पर इन्शान हु, गल्तिया मुझसे भी हो जाती थी। आज भी दोस्तॊ की गाडी पर जब मै बैठता हु तो कृष्ण गोपाल और अजिम के साथ मुझे सबसे ज्यदा डर लगता है क्योकी ये गाली देने और गुससाने के बाद भी नही सुधरते है।
खैर~ रोड ऐक्सिडेन्ट के कुछ वाक्ये मुझे याद आ रहे है। एक घटना तब की है जब इलहाबाद मे कुम्भ लगने वाला था, सडको को खोदा जा रहा था, गहरी सीवर लाइने डाली जा रही थी, सडको को चौडा किया जा रहा था, ठण्डी मे दिसम्बर का महिना था और रात के कोइ साडे दस से ग्यारह बजे थे। मै और आशु घर से खाना लेके हर्टकेयर होस्पिटल के लिये निकले थे जहा पर हमारे एक मित्र शिवेन्द्र रोड ऐक्सिडेन्ट के कारण ही भरती थे। अपने घर के पिछे डोक्टरो के पोश इलाके दरभङ्गा मे हम पहुचे ही थे की सुन्सान सडक के बिचॊ बिच खुदे सिवर के नये गढ्ढॆ मे मुह के बल गिरा एक आदमी कराह रहा था जिसकी चालु बाईक उसके उपर नाच रही थी। हम रुकते है पहले किसी तरह बाईक को निकालते है फ़िर टाग से खिचकर किसी तरह उस व्यक्ति को निकालते है। उनके पुरे मुह से खुन बह रहा होता है, चेहरा कई जगह से क्ट चुका रह्ता है। और वो महाशय खुद दारु के नशे मे झुम रहे होते है। हमारे पहुचने से पहले ही कोइ सज्जन ग्ढ्ढॆ से ही उनका मोबाईल और पर्स लेकर भाग चुका रहता है। किसी तरह उनके घर पर मै फोन करता हु, उनकी पत्नि सुनते ही रोने च्चिल्लाने लगती है मै उन्से कह्ता हु आप राज नर्सिग होम आइये हम उन्हे लेकर वहि जा रहे है, किसि तरह हम उन्हे लादकर हास्पिटल पहुचते है। कुछ ही देर मे उनके परिवार वाले भी वहा आ जाते है फ़िर मालुम चलता है कि ये महाशय खुद एक डाक्टर है और इनका नाम आनन्द सिह है, प्लेटिनम बार से कोइ पार्टी करके लौट रहे थे। फ़िर कुछ देर बाद हम लोग वहा से निकल लेते है। दो दिनो बाद डाक्टर साहब कि पत्नि का मुझे फ़ोन आता है और रोने लगती है, कह्ती है भैया आपकी वजह से आज मेरे पती की जान बची है मै आपका अहशान जिन्दगी भर नही भुलुगी अगर आप उस दिन मेरे पती को लेकर होस्पिटल न आये होते तो शायद आज वो जिन्दा न होते, उनकी हालत कितनी सिरियस थी उस्को आप इशी से समझ सकते है की सुबह होते ही हमे उन्हे लेकर शहारा होस्पिटल लखनऊ आना पडा। अब जा कर वो खतरे से बाहर है, आपको जो चाहिये मै वो दुगी, आपका अह्शान मै---- और न जाने क्या क्या------ फ़िर मैने कहा भाभी इन सब कि कोइ आव्श्यक्ता नही है, बस आप भी हमारी तरह किसी जरुरत मन्द कि मदद कर दिजियेगा, शायद कोइ जिन्दगी बच जाये।
दुसरी घटना 8 फरवरी 2014 की है ये वो दिन था जब मैंने अपनी लाइफ का पहला बड़ा इवेंट "यस आई कैन" मैनेज किया था। उसमे मेरे अधिकतर दोस्त आये थे पर अफ़सोस उनमे से अधिकतर ने उस इवेंट में बताई गयी किसी भी बातो पर जरा भी अमल नहीं किया था, शाम को मेरे कुछ दोस्त एक लड़के के भाई की शादी में कौशाम्बी जाने के लिए इलाहबाद से निकलते है। पर अफ़सोस निकलने से पहले.... वे शराब पीते है, आधे रास्ते पहुँचते पहुँचते शायद उनके नशे का लेवल बदल चुका रहता है इसलिए वे फिर रुकते है और फिर भर पेट दारु पीते है। अब वो अपनी गाड़ियों पर सवार होकर हवा से बाते करने लगते है, एकाएक रास्ते में एक चौराहा आता है और रश ड्राइविंग के कारण वे गिर पड़ते है उसमे मेरे एक दोस्त की रीढ़ की हड्डी टूट जाती है उसे बाकी लोग लेकर उसी राज नर्सिंग होम आते है जहा पर मैंने डॉक्टर आनंद सिंह को भर्ती कराया था। मुझे जब मालूम चलता है तो मै भी हॉस्पिटल जाता हु पर अफ़सोस उससे नजरे नहीं मिला पाता हु, और अंदर नहीं जाता हु। उसी दिन उसे लेकर लोग दिल्ली के एम्स में जाते है जहा पर उसकी जान तो बच जाती है पर उसके कमर के निचे का हिस्सा अब केवल मॉस और हड्डियों का एक निर्जीव समान लोथड़ा बन चुका रहता है। कुछ दिनों बाद वो वापस इलाहाबाद आता है मै सोचता हु अब उससे मिलु, वो अपनी fb पर खुद की सलामती की दुआ मांगने के लिए एक पोस्ट भी डालता है पर मै चाह कर भी अपने एक दुसरे दोस्त की वजह से न उस पर कमेंट करता हु न उससे मिलने जाता हु। मेरे दूसरे दोस्त को न जाने कौन सी बीमारी हो गयी रहती है, मुझे खुद की, एसिडेंट हुए दोस्त की फ्रेंड लिस्ट सहित कई अन्य जानने वाले लोगो की फ्रेंड लिस्ट से अनफ्रैंड करा देते है, वो अपने हर उस दोस्त से अपने रिश्ते बिगाड़ने लग जाता है जिनसे मै हस कर बात कर लेता था या कोई मतलब रखता था मेरे साथ साथ उसे भी माँ बहिनो के साथ सम्बोधित करने लग जाता। जबकि वो भूल जाता की इन्ही माँ बहनो को कभी उसने खुद की माँ बहन का दर्जा दे रखा था। पर अफ़सोस ------- मैंने कई बार कोशिश किया की रिश्तो को शभाल लू, पर शायद वो ऐसा नहीं चाहता था, मै भी एक इन्शान था कुत्ता तो नहीं। फिर क्या? मैंने भी रिश्तो को एक हंशी मोड़ देकर, अपने आपको हर उस जानने वाले से दूर करना शुरू कर दिया जिनको वो जानते थे, ताकी वो खुश रहे। पर हा ईश बात का ख्याल रखा की कही कभी किसी से किसी मोड़ पर मुलाकात हो जाये तो एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा सके या फिर कभी रिश्तो में वापस लौटना हुआ तो ये अफ़सोस न रह जाये की "यार हम तो काफी दूर निकल आये है"
शहर के अन्दर रहने के कारण बचपन से ही अक्सर रोड और उस पर होने वाले ऐक्सिडेन्ट से मॆरा समना होता रहता था, उमेश भैया कि बीमारी कि वजह से बचपन मे ही छ: महीने तक इलहाबाद मेडीकल कालेज मे रहा, जहा पर रोज रोड ऐक्सिडेन्ट कि वजह से लोगो को मरते, हाथ पैर जोड्वाते, कटवाते, सर पर टाके लगवाते और उनसे जुडे लोगो को रोते बिलखते देखा। जिसके कारण ऐक्सिडेन्ट क्या होता है? इसकी भयानक तस्वीर मेरे मन मश्तिश्क मे बन चुकी थी। मै तब से हमेशा इस्से बचने का हर प्रयाश करने लगा और ऐक्सिडेन्ट की चपेट मे आये लोगो की जहा तक हो सके मदद भी करने लगा। चिरागन NGO कि सुरुवात करने का कही न कही एक कारण ऐक्सिडेन्ट भी बना।
जब मै गाडी चलाने लगा या दोस्तो के साथ उनकी गाडी पर बैठने लगा तो अक्सर मै ऐक्सिडेन्ट को ध्यान मे रखने लगा पर इन्शान हु, गल्तिया मुझसे भी हो जाती थी। आज भी दोस्तॊ की गाडी पर जब मै बैठता हु तो कृष्ण गोपाल और अजिम के साथ मुझे सबसे ज्यदा डर लगता है क्योकी ये गाली देने और गुससाने के बाद भी नही सुधरते है।
खैर~ रोड ऐक्सिडेन्ट के कुछ वाक्ये मुझे याद आ रहे है। एक घटना तब की है जब इलहाबाद मे कुम्भ लगने वाला था, सडको को खोदा जा रहा था, गहरी सीवर लाइने डाली जा रही थी, सडको को चौडा किया जा रहा था, ठण्डी मे दिसम्बर का महिना था और रात के कोइ साडे दस से ग्यारह बजे थे। मै और आशु घर से खाना लेके हर्टकेयर होस्पिटल के लिये निकले थे जहा पर हमारे एक मित्र शिवेन्द्र रोड ऐक्सिडेन्ट के कारण ही भरती थे। अपने घर के पिछे डोक्टरो के पोश इलाके दरभङ्गा मे हम पहुचे ही थे की सुन्सान सडक के बिचॊ बिच खुदे सिवर के नये गढ्ढॆ मे मुह के बल गिरा एक आदमी कराह रहा था जिसकी चालु बाईक उसके उपर नाच रही थी। हम रुकते है पहले किसी तरह बाईक को निकालते है फ़िर टाग से खिचकर किसी तरह उस व्यक्ति को निकालते है। उनके पुरे मुह से खुन बह रहा होता है, चेहरा कई जगह से क्ट चुका रह्ता है। और वो महाशय खुद दारु के नशे मे झुम रहे होते है। हमारे पहुचने से पहले ही कोइ सज्जन ग्ढ्ढॆ से ही उनका मोबाईल और पर्स लेकर भाग चुका रहता है। किसी तरह उनके घर पर मै फोन करता हु, उनकी पत्नि सुनते ही रोने च्चिल्लाने लगती है मै उन्से कह्ता हु आप राज नर्सिग होम आइये हम उन्हे लेकर वहि जा रहे है, किसि तरह हम उन्हे लादकर हास्पिटल पहुचते है। कुछ ही देर मे उनके परिवार वाले भी वहा आ जाते है फ़िर मालुम चलता है कि ये महाशय खुद एक डाक्टर है और इनका नाम आनन्द सिह है, प्लेटिनम बार से कोइ पार्टी करके लौट रहे थे। फ़िर कुछ देर बाद हम लोग वहा से निकल लेते है। दो दिनो बाद डाक्टर साहब कि पत्नि का मुझे फ़ोन आता है और रोने लगती है, कह्ती है भैया आपकी वजह से आज मेरे पती की जान बची है मै आपका अहशान जिन्दगी भर नही भुलुगी अगर आप उस दिन मेरे पती को लेकर होस्पिटल न आये होते तो शायद आज वो जिन्दा न होते, उनकी हालत कितनी सिरियस थी उस्को आप इशी से समझ सकते है की सुबह होते ही हमे उन्हे लेकर शहारा होस्पिटल लखनऊ आना पडा। अब जा कर वो खतरे से बाहर है, आपको जो चाहिये मै वो दुगी, आपका अह्शान मै---- और न जाने क्या क्या------ फ़िर मैने कहा भाभी इन सब कि कोइ आव्श्यक्ता नही है, बस आप भी हमारी तरह किसी जरुरत मन्द कि मदद कर दिजियेगा, शायद कोइ जिन्दगी बच जाये।
दुसरी घटना 8 फरवरी 2014 की है ये वो दिन था जब मैंने अपनी लाइफ का पहला बड़ा इवेंट "यस आई कैन" मैनेज किया था। उसमे मेरे अधिकतर दोस्त आये थे पर अफ़सोस उनमे से अधिकतर ने उस इवेंट में बताई गयी किसी भी बातो पर जरा भी अमल नहीं किया था, शाम को मेरे कुछ दोस्त एक लड़के के भाई की शादी में कौशाम्बी जाने के लिए इलाहबाद से निकलते है। पर अफ़सोस निकलने से पहले.... वे शराब पीते है, आधे रास्ते पहुँचते पहुँचते शायद उनके नशे का लेवल बदल चुका रहता है इसलिए वे फिर रुकते है और फिर भर पेट दारु पीते है। अब वो अपनी गाड़ियों पर सवार होकर हवा से बाते करने लगते है, एकाएक रास्ते में एक चौराहा आता है और रश ड्राइविंग के कारण वे गिर पड़ते है उसमे मेरे एक दोस्त की रीढ़ की हड्डी टूट जाती है उसे बाकी लोग लेकर उसी राज नर्सिंग होम आते है जहा पर मैंने डॉक्टर आनंद सिंह को भर्ती कराया था। मुझे जब मालूम चलता है तो मै भी हॉस्पिटल जाता हु पर अफ़सोस उससे नजरे नहीं मिला पाता हु, और अंदर नहीं जाता हु। उसी दिन उसे लेकर लोग दिल्ली के एम्स में जाते है जहा पर उसकी जान तो बच जाती है पर उसके कमर के निचे का हिस्सा अब केवल मॉस और हड्डियों का एक निर्जीव समान लोथड़ा बन चुका रहता है। कुछ दिनों बाद वो वापस इलाहाबाद आता है मै सोचता हु अब उससे मिलु, वो अपनी fb पर खुद की सलामती की दुआ मांगने के लिए एक पोस्ट भी डालता है पर मै चाह कर भी अपने एक दुसरे दोस्त की वजह से न उस पर कमेंट करता हु न उससे मिलने जाता हु। मेरे दूसरे दोस्त को न जाने कौन सी बीमारी हो गयी रहती है, मुझे खुद की, एसिडेंट हुए दोस्त की फ्रेंड लिस्ट सहित कई अन्य जानने वाले लोगो की फ्रेंड लिस्ट से अनफ्रैंड करा देते है, वो अपने हर उस दोस्त से अपने रिश्ते बिगाड़ने लग जाता है जिनसे मै हस कर बात कर लेता था या कोई मतलब रखता था मेरे साथ साथ उसे भी माँ बहिनो के साथ सम्बोधित करने लग जाता। जबकि वो भूल जाता की इन्ही माँ बहनो को कभी उसने खुद की माँ बहन का दर्जा दे रखा था। पर अफ़सोस ------- मैंने कई बार कोशिश किया की रिश्तो को शभाल लू, पर शायद वो ऐसा नहीं चाहता था, मै भी एक इन्शान था कुत्ता तो नहीं। फिर क्या? मैंने भी रिश्तो को एक हंशी मोड़ देकर, अपने आपको हर उस जानने वाले से दूर करना शुरू कर दिया जिनको वो जानते थे, ताकी वो खुश रहे। पर हा ईश बात का ख्याल रखा की कही कभी किसी से किसी मोड़ पर मुलाकात हो जाये तो एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा सके या फिर कभी रिश्तो में वापस लौटना हुआ तो ये अफ़सोस न रह जाये की "यार हम तो काफी दूर निकल आये है"
अभी कुछ दिनों पहले मेरा वो दोस्त जिसका एसिडेंट हुआ था वो इस दुनिया को छोड़ कर चला गया, मुझे इस बात अफ़सोस पूरी जिंदगी रहेगा की मै उससे मिल न सका। काश उन सभी लोगो ने उस रात दारु न पि होती या उनके साथ वाले लोगो ने उन्हें दारू पिने से रोका होता और वो जिंदगी को लेके कुछ सिरियस होते तो शायद आज वो दोस्त जिन्दा होता। भगवान उसकी आत्मा को शांति और मुझे सदबुद्धि दे ताकी मै सही और गलत का फैसला कर सकु।
खैर ये दो घटनाएं तो रोड एसिडेंट का उदाहरण मात्र है जिनसे कही न कही मै जुड़ा था। आमिर का ये प्रयास भी हमेशा की तरह सराहनीय था। मोदी सरकार रोड पर चलने के लिए नया कानून ला रही है मैंने भी उनके पोर्टल mygov.in पर उन्हें सुझाव भेजा है की एसिडेंट के बाद सहायता करने के लिए बनने वाले कानूनो को व्यवहारिक बनाया जाये, अस्पताल ले जाने वाले लोगो को अनर्गल परेशान न किया जाये, बल्कि उन्हें प्रोत्साहित या सम्मानित किया जाये। ताकि अधिक से अधिक लोगो की जान बचाई जा सके। क्योकि जितने लोग एसिडेंट होने से नहीं मरते है उससे कही अधिक लोग एसिडेंट के दौरान समय पर इलाज न मिलने के कारण मरते है।
किंजल